सोनिया गांधी की ओर से बुलाई गई बैठक से जैसी खबरें छनकर बाहर आईं उनसे इसी बात की पुष्टि होती है कि कांग्रेस न केवल दिशाहीनता से ग्रस्त है, बल्कि पुरानी और नई पीढ़ी के नेताओं में बन भी नहीं रही। चूंकि पुरानी पीढ़ी के नेता सोनिया गांधी के करीबी माने जा रहे और नई पीढ़ी के राहुल गांधी के, इसलिए यह भी लगता है कि कांग्रेस एक तरह की खेमेबाजी से भी ग्रस्त है। इसका संकेत राजस्थान कांग्रेस के संकट से भी मिलता है। इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं कि कांग्रेस यह नहीं तय कर पा रही है कि उसे अपनी पराजय पर आत्ममंथन कैसे करना चाहिए?

जिस तरह यह सवाल उठा कि क्या कांग्रेस की पराजय के लिए संप्रग सरकार जिम्मेदार है उससे तो यही पता चलता है कि एक बेहद जरूरी सवाल की अनदेखी की जा रही है। हालांकि 2014 के लोकसभा चुनावों में पार्टी की करारी हार के कारणों का पता लगाने के लिए एके एंटनी के नेतृत्व में एक समिति गठित की गई थी, लेकिन कोई नहीं जानता कि उसकी रपट पर कोई विचार क्यों नहीं हुआ? यदि विचार हुआ होता तो शायद कांग्रेस अपनी उन गलतियों को ठीक कर पाती जिनके चलते उसे ऐतिहासिक पराजय का सामना करना पड़ा।

कांग्रेस अपनी दुर्दशा को लेकर चाहे जैसे आत्ममंथन करे या फिर न करे, लेकिन यदि यह मानकर चला जा रहा कि गलतियां केवल संप्रग शासन के दौरान हुईं तो इसका मतलब है कि दीवार पर लिखी इबारत पढ़ने से इन्कार किया जा रहा है। सच तो यह है कि गलतियां सत्ता से बाहर होने के बाद भी हुईं और इसी कारण 2019 के लोकसभा चुनावों में पार्टी को शर्मनाक पराजय से दो-चार होना पड़ा। यदि 2014 की हार के लिए मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी जिम्मेदार हैं तो 2019 की पराजय की जिम्मेदारी राहुल गांधी को लेनी होगी। कांग्रेस की बैठक में जिस तरह यह मांग उठी कि राहुल को फिर से अध्यक्ष बनाया जाए उससे यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या पार्टी के पास और कोई सक्षम नेता नहीं?

यदि राहुल को फिर पार्टी अध्यक्ष बनाने की जरूरत आ गई है तो फिर उन्होंने यह पद छोड़ा ही क्यों था? जो कांग्रेसी नेता यह रेखांकित कर राहुल को फिर अध्यक्ष बनाना चाह रहे हैं कि वह बहुत मेहनत कर रहे हैं वे शायद यह समझने को तैयार नहीं कि निरर्थक मेहनत का कोई मतलब नहीं होता। वास्तव में कांग्रेस की समस्या केवल यह नहीं कि वह अपनी गलतियों पर गौर करने को तैयार नहीं, बल्कि यह भी है कि वह परिवार से आगे और कुछ देखने की दृष्टि खो चुकी है।