यह चिंताजनक है कि सरकारी धान खरीद में केंद्र और राज्य सरकारें एकमत नहीं हो पा रहीं। धान खरीद के मौजूदा मानकों में नमी की दर सिर्फ 17 फीसद अनुमन्य है। राज्य सरकार ने केंद्र से इसे बढ़ाने का आग्रह किया है लेकिन केंद्र सरकार ने इस बारे में अब तक कोई निर्णय नहीं लिया। इस बारे में जब केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान से पूछा गया तो उन्होंने ऐसे किसी प्रस्ताव के प्रति अनभिज्ञता जाहिर करते हुए कहा कि यदि राज्य सरकार ऐसा प्रस्ताव भेजती है तो केंद्र विचार करेगा। जाहिर है कि इस मसले पर किसी न किसी स्तर केंद्र और राज्य के बीच संवादहीनता बनी हुई है। यदि केंद्र सरकार राज्य के प्रस्ताव का समुचित संज्ञान नहीं ले रही तो उसे हर संभव माध्यम से लगातार स्मरण कराया जाना चाहिए। धान की नमी ही वह ह्यहथियारह्ण है जिसके बूते बिचौलिये और क्रय केंद्रों के भ्रष्ट कर्मचारी किसानों को परेशान करते हैं ताकि वे हतोत्साहित होकर अपनी उपज बिचौलियों के हवाले कर दें। राज्य में धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1550 रुपये प्रति क्विंटल है जबकि मंडी में 1100-1200 रुपये। राज्य सरकार ने किसानों को शोषण से बचाने के लिए तमाम प्रयत्न किए हैं, पर भ्रष्ट तंत्र हर उपाय की काट निकाल लेता है। सबको पता है कि किस तरह मंडी में किसानों से औने-पौने दाम खरीदकर धान सरकारी क्रय केंद्रों में भेज दिया जाता है।1 सरकारी अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों का कर्तव्य है कि वे धान खरीद पर नजर रखें, सरकारी क्रय केंद्रों का आकस्मिक निरीक्षण करें, वहां मौजूद किसानों से फीडबैक लें, जिन केंद्रों पर बहुत कम या बहुत ज्यादा खरीद हो रही है, उसकी वजह जानने की कोशिश करें। किसानों के आर्थिक पहलू को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। किसान संभवत: एकमात्र उत्पादक वर्ग है जिसकी उपज का मूल्य सरकार तय करती है। यही वजह है कि पिछले दो दशकों में कृषि लागत में कई गुना बढ़ोतरी हो गई जबकि उपज के मूल्य में बहुत कम। जाहिर है कि तमाम टेक्नोलॉजी और प्रयोगों के बावजूद किसानों की आर्थिक स्थिति में खास सुधार नहीं आया। यदि किसानों को उनकी उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं दिलाया जा सकता तो किसानों की तारीफ की बातें अर्थहीन होकर रह जाएंगी।

[ स्थानीय संपादकीय: बिहार ]