धान खरीद में बिचौलियों की मदद लेने से सरकार ने किनारा तो किया, लेकिन इस फैसले पर अब पुनर्विचार को मजबूर होना पड़ रहा है।
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प्रदेश में सरकारी स्तर पर होने वाली धान खरीद में कमीशन एजेंट का मसला उलझने से सरकार की मुश्किलें बढ़ गई हैं। दरअसल, इस मामले में ऊधमसिंह नगर जिले में चावल घोटाले की जांच रिपोर्ट में जो तथ्य सामने आए हैं, उनके आलोक में सरकार के लिए अपने फैसले को अमलीजामा पहनाने में अड़चनें खड़ी हो गई हैं। जांच रिपोर्ट में धान की खरीद में कमीशन एजेंट के तौर पर राइस मिलर्स की भूमिका पर अंगुली उठाई गई है। जांच में यह तथ्य सामने आया कि कमीशन एजेंट ने किसानों से धान न्यूनतम समर्थन मूल्य से काफी कम कीमत पर लिया, किंतु सरकार से न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार पर धान की कीमत वसूल की गई। इसमें करीब 254 करोड़ की अनियमितता का जिक्र किया गया है। जांच रिपोर्ट के आधार पर ही सरकार के रवैये में आए बदलाव का असर धान खरीद नीति पर भी पड़ा है। इस नीति से कमीशन एजेंट को बाहर कर दिया गया। बाद में राइस मिलर्स की ओर से कमीशन एजेंट की व्यवस्था बहाल करने को दबाव बनाया गया तो सरकार ने बैकफुट पर आते हुए इसकी कवायद भी शुरू कर दी। जाहिर है कि कमीशन एजेंट की व्यवस्था खत्म करने के फैसले से पहले उसके प्रभावों का पूरी तरह से आकलन नहीं किया गया। यदि ऐसा होता तो वैकल्पिक व्यवस्था को कारगर तरीके से बनाने और लागू करने पर जोर दिया जाता है। अब इस व्यवस्था को बहाल करने की कसरत की जा रही है तो जांच रिपोर्ट में उठाए गए बिंदुओं की अनदेखी का खतरा पैदा हो गया है। हकीकत ये सामने आई है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य का धरातल पर वास्तविक लाभ किसानों को नहीं मिल पा रहा है। जांच रिपोर्ट में बड़ा लाभ बिचौलियों के हाथ लगने का तथ्य उजागर हुआ है। चूंकि यह व्यवस्था लंबे अरसे से चली आ रही है, इस वजह से धान खरीद का सीजन शुरू होने के साथ ही एकाएक नई वैकल्पिक व्यवस्था के बारे में मंथन करने का पर्याप्त मौका खाद्य महकमे और सरकार को नहीं मिला। इस मामले में दोनों ही स्तरों पर इच्छाशक्ति की कमी साफ दिखाई पड़ रही है। व्यावहारिकता को देखते हुए कमीशन एजेंट की व्यवस्था बहाल भले ही की जाए, लेकिन इसकी आड़ में जिन खामियों का खुलासा हुआ है, उनका समाधान भी जरूरी है। अन्यथा सरकार के बैकफुट में जाने के बावजूद उसकी नीति और नीयत पर सवाल उठने लाजिमी होंगे।

[ स्थानीय संपादकीय: उत्तराखंड ]