कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने बेगूसराय से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रत्याशी कन्हैया कुमार की तारीफ में यह कहकर महागठबंधन के विरोधाभास को नए सिरे से उजागर करने का ही काम किया है कि राष्ट्रीय जनता दल ने इस युवा नेता के खिलाफ उम्मीदवार उतारकर बहुत बड़ी गलती की। उनके मुताबिक कन्हैया कुमार उनके पक्ष में चुनाव प्रचार करने भोपाल भी आएंगे। उनकी मानें तो उन्होंने इसकी पैरवी भी की थी कि राजद कन्हैया कुमार के खिलाफ अपना उम्मीदवार न उतारे, लेकिन बात बनी नहीं। वह सही ही कह रहे होंगे, लेकिन यह समझना कठिन है कि इस बात को उजागर करके वह यह क्यों रेखांकित कर रहे कि बिहार में महागठबंधन में सब कुछ ठीक नहीं?

दिग्विजय सिंह के इस बयान के पहले राष्ट्रवादी कांग्र्रेस पार्टी के प्रमुख शरद पवार का यह बयान सुर्खियां बना था कि भाजपा के नेतृत्व वाले राजग के स्पष्ट बहुमत पाने की संभावना कम है और ऐसे में ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू और मायावती प्रधानमंत्री पद के लिए बेहतर विकल्प होंगे। इसी के साथ उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को पीएम पद की दौड़ से बाहर भी बता दिया था। क्या इसकी जरूरत थी? क्या महाराष्ट्र में भी महागठबंधन के बीच सब कुछ ठीक नहीं। जो भी हो, शरद पवार के इस बयान ने शत्रुघ्न सिन्हा के उस कथन की याद दिला दी जिसमें उन्होंने मायावती के साथ ही अखिलेश यादव को भी पीएम पद के योग्य बताया था। यह उन्होंने तब कहा था जब वह समाजवादी पार्टी से चुनाव मैदान में उतरीं पत्नी पूनम सिन्हा का प्रचार करने लखनऊ आए थे। वह खुद कांग्र्रेस के प्रत्याशी हैं। शत्रुघ्न सिन्हा के बयान को उनकी मजबूरी कहा जा सकता है, लेकिन आखिर दिग्विजय सिंह और शरद पवार महागठबंधन की दरारें चौड़ी करने का काम क्यों कर रहे हैं?

दिग्विजय सिंह और शरद पवार के बयान इसी बात के परिचायक हैं कि किसी गठबंधन को महागठबंधन का नाम देने मात्र से सब कुछ सही नहीं हो जाता। ऐसे बयान यह भी बताते हैं कि महागठबंधन समान विचारधारा वाले दलों का मिलन नहीं, बल्कि मजबूरी का साथ है। यह ठीक नहीं कि गठबंधन की राजनीति मजबूरी और मौकापरस्ती का पर्याय बन गई है। महागठबंधन में वे अनेक दल शामिल हैं जो एक समय कांग्रेस विरोध की राजनीति का परिचायक थे। आज जब उन्हें कांग्रेस से परहेज नहीं तो फिर इसका क्या मतलब कि वे अलग दल के रूप में अपना अस्तित्व बनाए रहें?

सवाल यह भी है कि महागठबंधन बनने के बाद उसमें शामिल दलों ने अपने घोषणा पत्र अलग-अलग क्यों जारी किए? क्या यह समय की मांग नहीं थी कि महागठबंधन का अपना कोई साझा घोषणा पत्र अथवा न्यूनतम साझा कार्यक्रम जारी होता? एक समय गठबंधन राजनीति के तहत न्यूनतम साझा कार्यक्रम आवश्यक समझा जाता था, लेकिन अब उसकी जरूरत ही नहीं समझी जा रही है। इससे यही झलकता है कि आम जनता को अहमियत नहीं दी जा रही है। अलग-अलग राजनीतिक दलों के विचारों में भिन्नता होना स्वाभाविक है, लेकिन यदि इस भिन्नता के नाम पर वे एक-दूसरे का विरोध करते दिखेंगे तो इससे आम जनता के बीच भ्रम ही फैलेगा।