अलगाववादी, पाकिस्तानपरस्त और कश्मीरियत के साथ भारतीयता के बैरी हुर्रियत नेताओं से सुरक्षा एवं अन्य सरकारी सुविधाएं वापस लेने का फैसला एक सही कदम है, लेकिन सवाल यह है कि अलगाव के साथ आतंक के समर्थक इन तथाकथित कश्मीरी नेताओं को सुरक्षा दी ही क्यों गई थी? क्या यह विचित्र नहीं कि एक ओर देश के खिलाफ बयानबाजी या नारेबाजी करने अथवा सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक टिप्पणियां लिखने पर तो देशद्रोह का मामला दर्ज हो जाता है, लेकिन पाकिस्तान के इशारे पर भारत के खिलाफ लगातार जहर उगलने, मजहबी उन्माद फैलाने, पत्थरबाजों के गिरोहों को पालने और आतंकियों का गुणगान करने वाले हुर्रियत नेता बरसों से सरकारी सुरक्षा पर पल रहे थे। यह उदारता नहीं, एक तरह की नीतिगत जड़ता थी।

हैरानी की बात है कि इसके पहले किसी ने यह क्यों नहीं सोचा कि कश्मीर के माहौल को विषाक्त करने वाले इन तत्वों को सुरक्षा के साये में रखना एक प्रकार से सांपों को दूध पिलाना है? आखिर किस आधार पर इनसे यह उम्मीद की जा रही थी कि ये कश्मीर समस्या के समाधान में सहायक बन सकते हैं? जैसे यह एक मृग मरीचिका थी वैसे ही यह भी कि कश्मीर को कुछ और अधिकार देकर वहां के नेताओं को संतुष्ट किया जा सकता है। वास्तव में कश्मीर में सुरक्षा की आवश्यकता तो भारत समर्थक कश्मीरियों को है। चूंकि कश्मीर में अलगाववाद और आतंकवाद पनपा ही इसलिए कि उसे धारा 370 के तहत कहीं अधिक अधिकार प्राप्त हैं इसलिए यह सही समय है जब इस धारा को खत्म करने पर विचार किया जाना चाहिए। यह धारा कश्मीर घाटी और शेष भारत के बीच एक खाई की तरह है। इसीलिए कश्मीरियों का एक तबका खुद को भारत से अलग मानता है। इसी मान्यता ने घाटी में अलगाव के बीज बोए।

जैसे पाकिस्तान को दिए गए सर्वाधिक अनुकूल राष्ट्र के दर्जे को वापस लेने में देर हुई वैसे ही अलगाववादी नेताओं से सुरक्षा वापस लेने में भी। बेहतर हो धारा 370 खत्म करने में देर न की जाए। और भी बेहतर होगा कि इस संभावना को भी टटोला जाए कि क्या इस राज्य को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है? नि:संदेह आम कश्मीरियों की उचित मांगों पर नरमी दिखाई जानी चाहिए, लेकिन इसी के साथ यह भी समझा जाना चाहिए कि आबादी के असंतुलन ने वहां के हालात और बिगाड़े हैं। यह अच्छा नहीं हुआ कि बीते 55 महीनों में कश्मीरी पंडितों को उनके घरों में फिर से बसाने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हो सकी। यह पहल केवल इसलिए नाकाम नहीं हुई कि अलगाववादी बाधक बन गए थे। यह इसलिए भी नाकाम हुई, क्योंकि पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस सरीखे दल भी हुर्रियत जैसी भाषा बोलने लगे थे।

साफ है कि कश्मीर में कुछ और कदम भी उठाने होंगे। इस क्रम में पत्थरबाजों के अन्य आकाओं पर भी सख्ती करनी होगी और यह ध्यान रखना होगा कि इन आकाओं में राजनीतिक दलों के नेता और कार्यकर्ता भी शामिल हैं। चूंकि यह समय छिटपुट नहीं, बल्कि कश्मीर घाटी को मुख्यधारा में लाने वाले निर्णायक फैसलों का है इसलिए उसी दिशा में तेजी से बढ़ना चाहिए।