देश को हिला देने वाले कठुआ कांड पर फैसला न्याय के प्रति आम आदमी के भरोसे को बढ़ाने वाला है। यह अच्छा हुआ कि इस मामले में फैसला आने में अधिक समय नहीं लगा, लेकिन उचित यह होगा कि ऊंची अदालतों में इस मामले का निपटारा और भी तेजी से हो। यह इसलिए आवश्यक है, ताकि दुष्कर्म और हत्या के इस जघन्य मामले में किसी तरह की संकीर्ण राजनीति न हो सके। इसे विस्मृत नहीं किया जाना चाहिए कि इस मामले में कैसी विभाजनकारी राजनीति हुई थी।

एक समय तो यह मामला जम्मू बनाम कश्मीर में तब्दील हो गया था। इतना ही नहीं, इस प्रकरण को सांप्रदायिक रंग देने की भी खूब कोशिश हुई थी। जिन्होंने भी ऐसा किया उन्हें सबक सीखना चाहिए। क्या इससे खराब बात और कोई हो सकती है कि समाज और देश की बदनामी कराने वाले अपराध के गंभीर मामलों को सांप्रदायिक रंग दिया जाए?

कठुआ कांड पर एक ऐसे समय फैसला आया है जब बच्चियों और महिलाओं के साथ बर्बर किस्म के अपराध सामने आ रहे हैं। अपराध के ये मामले कानून एवं व्यवस्था के समक्ष गंभीर सवाल खड़े करने और साथ ही सभ्य समाज को शर्मिदा करने वाले हैं।

नि:संदेह ऐसे मामले बच्चियों और महिलाओं की सुरक्षा को लेकर चिंता पैदा करने वाले भी हैं। इन दिनों अलीगढ़ जिले की एक बच्ची की हत्या के मामले ने देश का ध्यान अपनी ओर खींचा हुआ है तो इसीलिए कि उसे बहुत बेरहमी से मारा गया। इस पर हैरत नहीं कि अलीगढ़ के रोंगटे खड़े कर देने वाले इस मामले की तुलना कठुआ कांड से की जा रही है।

चूंकि जघन्य अपराध के कुछ ही मामले व्यापक चर्चा और चिंता का कारण बनते हैं इसलिए ऐसे उपाय करने की सख्त जरूरत है जिससे गंभीर किस्म के हर अपराध के दोषियों को बिना किसी देरी के कठोर दंड का पात्र बनाया जा सके। यह एक तथ्य है कि अक्सर बच्चियों और महिलाओं के साथ होने वाले गंभीर किस्म के अपराध न तो सुर्खियां बन पाते हैं और न ही उनकी ढंग से जांच हो पाती है।

इस विसंगति को प्राथमिकता के आधार पर दूर किया जाना चाहिए। नि:संदेह इसके लिए पुलिस को और संवेदनशील बनना होगा और साथ ही अदालती प्रक्रिया में तेजी भी लानी होगी, लेकिन इसी के साथ उस दूषित मानसिकता का भी उपचार करना होगा जिसके चलते बच्चियों और महिलाओं के प्रति यौन अपराध बढ़ते चले जा रहे हैं।

कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि यौन अपराधियों को किसी का डर ही नहीं रह गया है। उनकी घृणित हरकतें इसके बावजूद बढ़ती जा रही हैं कि दुष्कर्म और हत्या के संगीन मामलों में मौत की सजा का भी प्रावधान कर दिया गया है। नि:संदेह कठोर कानूनों की अपनी अहमियत होती है, लेकिन केवल उनके जरिये ही हालात नहीं सुधारे जा सकते।

कठोर कानूनों के साथ ही यह भी जरूरी है कि महिलाओं के प्रति लोगों की मानसिकता बदले। यह काम घर-परिवार और समाज को करना होगा। सब कुछ पुलिस और अदालतों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। यह चिंता समाज को ही करना होगा कि वह कैसे समाज का निर्माण कर रहा है?

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