केंद्रीय कैबिनेट ने अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों अर्थात एससी-एसटी समुदाय के आरक्षण में क्रीमी लेयर की व्यवस्था लागू न करने का जो फैसला किया, वह मोदी सरकार की राजनीतिक विवशता का ही परिचायक है। चूंकि सुप्रीम कोर्ट के क्रीमी लेयर वाले सुझाव का कई दलों की ओर से विरोध किया जा रहा था और पिछले दिनों भाजपा के एससी-एसटी वर्ग के सांसदों के एक प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री से मिलकर इस सुझाव के अनुरूप कोई कदम न उठाने का आग्रह भी किया था, इसलिए इसके आसार कम ही थे कि केंद्र सरकार इस दिशा में कोई पहल करेगी।

केंद्रीय कैबिनेट ने ऐसा फैसला शायद इसलिए भी लिया, ताकि विपक्षी दल यह कपटपूर्ण दुष्प्रचार न कर सकें कि मोदी सरकार संविधान और आरक्षण खत्म करना चाहती है। सुप्रीम कोर्ट के इस सुझाव में कुछ भी अनुचित नहीं कि ओबीसी आरक्षण की तरह एससी-एसटी आरक्षण में भी क्रीमी लेयर की व्यवस्था लागू की जानी चाहिए। आखिर एससी-एसटी समुदाय के जो लोग आइएएस-आइपीएस बन गए हैं, उनके बेटे-बेटियों को आरक्षण का लाभ क्यों मिलना चाहिए? क्या यह कहा जा सकता है कि एससी-एसटी समुदाय में ऐसा कोई भी नहीं, जो आर्थिक-सामाजिक रूप से सक्षम न हो और उसे आरक्षण की वैसी जरूरत नहीं रह गई, जैसी इन समुदायों के गांवों में रहने वाले निर्धन-वंचित लोगों को है?

समस्या केवल यह नहीं है कि एससी-एसटी वर्ग को अपनी प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर बताने वाले दल इन समुदायों के आरक्षण में क्रीमी लेयर की व्यवस्था लागू करने का विरोध कर रहे हैं। समस्या यह भी है कि ऐसे कुछ दल एससी-एसटी आरक्षण में उपवर्गीकरण का भी विरोध करने के लिए आगे आ गए हैं। यह विरोध इसके बावजूद किया जा रहा है कि स्वयं एससी-एसटी समाज के अनेक लोग और संगठन आरक्षण के भीतर आरक्षण की पैरवी करते चले आ रहे हैं। कुछ राज्य सरकारों ने उनकी मांग के कारण ही आरक्षण के भीतर आरक्षण की व्यवस्था बनाई भी थी।

एससी-एसटी आरक्षण में उपवर्गीकरण का विरोध करने वाले इससे भली तरह परिचित हैं कि इन दोनों समुदायों में कई जातियां ऐसी हैं, जो आर्थिक-सामाजिक रूप से कहीं अधिक पिछड़ी हैं। एससी-एसटी आरक्षण में उपवर्गीकरण के विरुद्ध यह तर्क दिया जा रहा है कि इन समुदायों की विभिन्न जातियों में कोई भेद नहीं और वे समरूप हैं। यह बिल्कुल भी सही नहीं। सब जानते हैं कि इन समुदायों की कई जातियां न केवल आरक्षण के लाभ से वंचित हैं, बल्कि उनके साथ आज भी भेदभाव भी होता है। क्या यह एक तथ्य नहीं कि वाल्मीकि समाज और अनुसूचित वर्ग की अन्य जातियों के बीच ऊंच-नीच का भाव है? यह ठीक नहीं कि सामाजिक न्याय के नाम पर वोट बैंक की राजनीति को प्राथमिकता दी जा रही है। यह राजनीति न केवल सामाजिक न्याय के खिलाफ है, बल्कि एससी-एसटी समुदाय की वंचित जातियों की अनदेखी भी है।