एक ऐसे समय जब करीब-करीब हर मसले पर राजनीतिक घमासान छिड़ा है तब यह कहना कठिन है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की इस बात को सही तरह समझने की कोशिश होगी कि भारत को अगले दस सालों के लिए एक ऐसी मजबूत, स्थिर और निर्णायक सरकार की जरूरत है जो कठोर फैसले ले सके। उनके अनुसार आने वाले समय में देश के आर्थिक, राजनीतिक एवं रणनीतिक हितों को सुनिश्चित करने वाले फैसले लेने होंगे। यदि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने यह कहा कि कमजोर और अस्थिर सरकारें देश के लिए नुकसानदायक होंगी तो वह गठबंधन सरकारों को खारिज भर नहीं कर रहे थे। इसी के साथ वह यह भी स्मरण करा रहे थे कि ऐसी सरकारें किस तरह कदम-कदम पर समझौते करने और राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करने के लिए विवश होती हैैं।

क्या यह भूला जा सकता है कि पिछली सरकार के समय जब आए दिन घपले-घोटाले हो रहे थे तब देश को यह सुनने को मिल रहा था कि गठबंधन सरकार की कुछ मजबूरियां होती हैैं? नि:संदेह यह भी विस्मृत नहीं किया जा सकता कि गठबंधन सरकारों के दौर में राजनीतिक अस्थिरता का कैसा माहौल था? मुश्किल यह है कि ऐसी सरकारों के तमाम खराब अनुभवों के बाद भी इसके लिए कहीं कोई कोशिश होती नहीं दिख रही कि गठजोड़ की राजनीति के कुछ कायदे-कानून बनें। स्थिति यह है कि ऐसी दलीलें दी जा रही हैैं कि गठबंधन सरकारों का स्वरूप तो चुनाव बाद उभरता है। यह अवसरवाद की राजनीति की पैरवी के अलावा और कुछ नहीं।

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने मजबूत सरकार की वकालत के साथ ही इस पर भी जोर दिया कि बेहतर भविष्य के लिए हर क्षेत्र में कानून का शासन कायम होना बेहद अहम है। ऐसे शासन की प्राप्ति तब होगी जब राजनीतिक दल नियम-कानूनों के पालन के प्रति प्रतिबद्ध रहें। आज न केवल इस प्रतिबद्धता का अभाव दिख रहा है, बल्कि चुनावी हितों के आगे राष्ट्रीय हितों को दांव पर भी लगाया जा रहा है। ऐसा करते हुए छल और झूठ की राजनीति करने में भी संकोच नहीं किया जा रहा है। अब तो यह भी दिखता है कि विपक्ष न केवल सत्तापक्ष की नाकामी में अपनी सफलता देखता है, बल्कि उसे नाकाम करने की कोशिश भी करता है। ऐसी क्षुद्र राजनीति तब हो रही है कि जब तकनीक के कारण आर्थिक परिदृश्य इतनी तेजी से बदल रहा है कि कमजोर और यहां तक कि मजबूत सरकारों के लिए भी उसके साथ कदम-ताल करना मुश्किल हो रहा है।

तकनीक आधारित अर्थव्यवस्था केवल उद्योग-व्यापार जगत की तस्वीर ही नहीं बदल रही है, बल्कि शासन के दायरे को भी सीमित कर रही है। बावजूद इसके जो सत्ता की होड़ में हैैं वे अपनी रीति-नीति से इसका अहसास ही नहीं कराते कि उन्हें तेजी से बदलते दौर की चुनौतियों का भान है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने यह सही कहा कि कोशिश यह होनी चाहिए कि निजी क्षेत्र की हमारी कंपनियां हमारे रणनीतिक हित साधें, लेकिन विडंबना देखिए कि जब ऐसी कोशिश होनी चाहिए तब नेताओं का एक ऐसा वर्ग उभर आया है जो उद्यमियों को खलनायक बताने में लगा हुआ है।