सीबीआइ के दो शीर्ष अधिकारी जिस तरह एक-दूसरे को कठघरे में खड़ा करने और शह-मात का खेल खेलने में लगे हुए थे उसे देखते हुए इन दोनों को छुट्टी पर भेजने के अलावा और कोई उपाय नहीं रह गया था। ऐसा कोई फैसला इसलिए और आवश्यक हो गया था, क्योंकि सीबीआइ की बची-खुची साख मिट्टी में मिल रही थी और सरकार भी सवालों के घेरे में आ गई थी। चूंकि सीबीआइ के निदेशक आलोक वर्मा और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना ने एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए इसलिए दोनों की जांच जरूरी हो गई थी। ऐसी कोई जांच तभी हो सकती थी जब उन्हें उनके काम से दूर किया जाता। सरकार ने ऐसा ही किया और आपस में उलझे दोनों अधिकारियों को छुट्टी पर भेजकर अंतरिम निदेशक की नियुक्त कर दी।

सीबीआइ निदेशक को छुट्टी पर भेजे जाने के फैसले का इस आधार पर विरोध का कोई मतलब नहीं कि उसका कार्यकाल तो तय होता है। नि:संदेह ऐसा ही होता है, लेकिन क्या इसका यह अर्थ भी है कि उस पर चाहे जैसे आरोप लगें उसे उसके पद पर बनाए ही रखा जाएगा? पता नहीं कैसे कुछ लोग इस नतीजे पर पहुंच गए कि विशेष निदेशक पर लगे आरोप तो सही हैं, लेकिन निदेशक जिन आरोपों से दो-चार हैं उनकी कोई अहमियत नहीं। क्या अभी ऐसे कोई साक्ष्य सामने आए हैं जिनसे एक अधिकारी को तो दूध का धुला और दूसरे को दागदार मान लिया जाए?

यह किसी भी दृष्टि से आदर्श स्थिति नहीं कि जहां सीबीआइ के विशेष निदेशक अपने खिलाफ कार्रवाई के विरोध में उच्च न्यायालय के समक्ष नजर आ रहे हैं वहीं निदेशक खुद को छुट्टी पर भेजे जाने के सरकार के फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय की शरण में हैं। पता नहीं उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय इन दोनों के मामलों की सुनवाई करते हुए किस नतीजे पर पहुंचेंगे, लेकिन अगर उनके फैसलों से कलह शांत नहीं होती तो फिर सीबीआइ की साख को बहाल करना मुश्किल होगा।

कहना कठिन है कि अदालतों का हस्तक्षेप वैसी परिस्थितियां पैदा करता है या नहीं जैसी सरकार चाह रही है, क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो उसके लिए वांछित फैसले लेने में मुश्किल पेश आ सकती है। जो भी हो, सीबीआइ में छिड़ी शर्मनाक रार से यह साफ हो गया कि केंद्रीय सतर्कता आयोग अपनी भूमिका का निर्वाह सही से नहीं कर सका। आखिर जब वह सीबीआइ निदेशक और विशेष निदेशक के बीच चल रही उठापटक से अवगत था तो फिर उसने समय रहते हस्तक्षेप क्यों नहीं किया? क्या ऐसा इसलिए हुआ कि वह हस्तक्षेप करने में समर्थ ही नहीं? यह वह सवाल है जिस पर सरकार को गंभीरता से विचार करना चाहिए।

सच तो यह है कि सरकार को सीबीआइ के ढांचे और उसकी कार्यप्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन करने पर भी विचार करना चाहिए ताकि फिर कभी वैसी स्थिति न बने जैसी अभी बनी और जिसके चलते जनता को यह संदेश गया कि देश की शीर्ष जांच एजेंसी में सब कुछ ठीक नहीं। चूंकि लोकतंत्र की साख उसकी सक्षम संस्थाओं से ही बढ़ती है इसलिए सीबीआइ और ऐसी ही अन्य संस्थाओं का भरोसेमंद होना आवश्यक है।