जागरण संपादकीय: राजनीतिक क्षुद्रता, निजी कार्यक्रमों में प्रधानमंत्री और सीजेआई की मुलाकात क्या गलत है?
इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि मौजूदा व्यवस्था में सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश की नियुक्ति में सरकार की कोई भूमिका नहीं होती जबकि अतीत में होती थी और यह किसी से छिपा नहीं कि उस दौरान किस तरह प्रधानमंत्री के चहेते हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश बनाए गए। इसके लिए परंपराओं और साथ ही राजनीतिक मर्यादा की भी खुली अनदेखी की गई।
सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के आवास पर गणपति पूजा के कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के जाने पर विपक्षी नेताओं की आपत्ति उनकी राजनीतिक क्षुद्रता का ही परिचायक है। क्या विपक्षी दल यह कहना चाहते हैं कि प्रधानमंत्री और सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश के बीच निजी कार्यक्रमों में किसी तरह की मेल-मुलाकात नहीं होनी चाहिए? क्या वे यह चाह रहे हैं कि प्रधानमंत्री को गणपति पूजा में सम्मिलित होने का प्रधान न्यायाधीश का निमंत्रण ठुकरा देना चाहिए था या फिर प्रधान न्यायाधीश को अपने आवास पर किसी को निमंत्रित ही नहीं करना चाहिए था? आखिर उनकी आपत्ति का आधार क्या है? कहीं उन्हें इससे तो समस्या नहीं कि प्रधान न्यायाधीश ने अपनी धार्मिक आस्था प्रकट करने और इस दौरान प्रधानमंत्री ने उनके आवास पर उपस्थित रहने में संकोच नहीं किया?
कम से कम उन्हें तो इससे कोई समस्या नहीं होनी चाहिए, जो संवैधानिक पदों पर रहने के दौरान सरकारी खर्चों पर इफ्तार की दावतों में शान से शिरकत किया करते थे। यह विडंबना ही है कि प्रधान न्यायाधीश और प्रधानमंत्री के एक साथ दिखने का विरोध वे भी कर रहे हैं, जो नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी की घनघोर भारत विरोधी अमेरिकी सांसद इल्हान उमर से मुलाकात को सामान्य बताने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए हैं और तरह-तरह के कुतर्क दे रहे हैं। किसी धार्मिक-सांस्कृतिक कार्यक्रम में प्रधान न्यायाधीश और प्रधानमंत्री के साथ दिखने से यह निष्कर्ष निकालना शरारत के अलावा और कुछ नहीं कि इससे सुप्रीम कोर्ट की ओर से दिए जाने वाले फैसले प्रभावित हो सकते हैं? इस हिसाब से तो न्यायाधीशों को अपने को आवास और न्यायालय तक ही सीमित कर लेना चाहिए, क्योंकि कहीं पर भी कोई नेता उनसे टकरा सकता है।
इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि मौजूदा व्यवस्था में सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश की नियुक्ति में सरकार की कोई भूमिका नहीं होती, जबकि अतीत में होती थी और यह किसी से छिपा नहीं कि उस दौरान किस तरह प्रधानमंत्री के चहेते हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश बनाए गए। इसके लिए परंपराओं और साथ ही राजनीतिक मर्यादा की भी खुली अनदेखी की गई। शीर्ष पदों पर बैठे लोगों का एक निजी जीवन भी होता है। इस अपेक्षा का कोई मतलब नहीं कि ऐसे लोगों के पद की गरिमा तभी बनी रहेगी, जब वे केवल आधिकारिक कार्यक्रमों में ही एक-दूसरे से मेल-मुलाकात करेंगे, क्योंकि फिर तो उनका एक-दूसरे के सुख-दुख में शामिल होना ही निषेध हो जाएगा।
यह अच्छा हुआ कि राजनीतिक क्षुद्रता की परवाह न करते हुए प्रधान न्यायाधीश ने उन क्षणों की फोटो और वीडियो सार्वजनिक करने में कोई संकोच नहीं किया, जब वह अपने आवास पर प्रधानमंत्री एवं अन्य अतिथियों के साथ गणपति पूजा कर रहे थे। राजनीति करने के और भी विषय हैं। एक सामान्य-सहज समागम पर संकीर्णता का परिचय देना बचकानी राजनीति के अलावा और कुछ नहीं।