अपने नेतृत्व में एक मजबूत महागठबंधन का निर्माण करने की कांग्रेस की कोशिश जिस तरह परवान चढ़ती नहीं दिख रही है उससे ज्यादा हैरानी नहीं। हैरानी इस पर अधिक है कि वह एक तरह से जबरन महागठबंधन का निर्माण करने की कोशिश करती दिख रही है। बीते दिनों उसने उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन के लिए अपनी ओर से जिस तरह सात सीटें छोड़ने का एलान किया उससे तो यही पता चला कि वह इन दोनों दलों से गठजोड़ करने के लिए बेचैन है। उसकी एकतरफा पेशकश का बसपा प्रमुख मायावती ने जैसा जवाब दिया उससे कांग्रेस को कुल मिलाकर शर्मिंदगी ही उठानी पड़ी है।

मायावती ने यह कहकर कांग्रेस को एक तरह से फटकारा ही है कि वह जबरदस्ती उत्तर प्रदेश में गठबंधन हेतु समत सीटें छोड़ने की भ्रांति न फैलाए। उन्होंने यहां तक कह दिया कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने के लिए स्वतंत्र है। समझना कठिन है कि जब मायावती यह साफ कर चुकी थीं कि बसपा कांग्रेस से कहीं पर भी समझौता नहीं करेगी तब फिर कांग्रेसी नेताओं ने सपा-बसपा गठबंधन से जबरन जुड़ने की कोशिश क्यों की?

कांग्रेस ने सपा-बसपा गठजोड़ में शामिल होने की जो कोशिश की उससे यही स्पष्ट होता है कि उसके इस दावे में कोई दम नहीं है कि वह उत्तर प्रदेश में पूरे दम-खम के साथ चुनाव लड़ेगी। क्या वह उत्तर प्रदेश में अपने बलबूते चुनाव लड़ने से हिचक गई? सच जो भी हो, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कांग्रेस ने ऐसे ही कमजोर आत्मविश्वास का प्रदर्शन उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के समय भी किया था। तब राहुल गांधी ने शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद के लिए कांग्रेस का उम्मीदवार घोषित करने के बाद यकायक सपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया था। कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में खुद को उसी हालत में ला खड़ा किया है जिस स्थिति में दिल्ली में आम आदमी पार्टी दिख रही है। कांग्रेस उससे समझौता करने को तैयार नहीं, लेकिन वह उससे हर हाल में समझौता करने को बेकरार है। पता नहीं दिल्ली में आगे क्या होगा, लेकिन अगर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस में समझौता हो जाता है तो देश की सबसे पुरानी पार्टी अपने एक और गढ़ में अपनी जमीन तो छोड़ेगी ही, शीला दीक्षित को फिर से असहज भी करेगी। व्यक्तियों की तरह से संगठनों को भी उतार-चढ़ाव देखने पड़ते हैैं, लेकिन जो संगठन खुद पर भरोसा नहीं करते वे डूबते ही हैैं।

यदि कांग्रेस को अपनी खोई हुई जमीन वापस पानी है तो उसे अपने पुराने गढ़ों में मजबूती से केवल लड़ना ही नहीं होगा, बल्कि अपने आत्मविश्वास का प्रदर्शन भी करना होगा। यदि वह महागठबंधन बनाने की कोशिश में एक के बाद एक राज्यों में दूसरे दलों की दया-कृपा पर निर्भर रहेगी तो फिर एक मजबूत राष्ट्रीय दल के रूप में कब उभरेगी? एक राष्ट्रीय दल के रूप में कांग्रेस का फिर से उभार इसलिए आवश्यक है, क्योंकि अन्य कोई विपक्षी दल इस स्थिति में नहीं कि भाजपा को चुनौती दे सके। यह काम कांग्रेस ही कर सकती है, लेकिन तभी जब खुद पर भरोसा करना सीखेगी।