यह अच्छा हुआ कि कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की माकपा नेता सीताराम येचुरी की सनसनीखेज पहल से खुद को दूर रखने के संकेत दिए। जब सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों और मुख्य न्यायाधीश के बीच मतभेद के मूल कारण अभी तक स्पष्ट नहीं और दोनों पक्ष अपने स्तर पर मामला सुलझाने की बात कर रहे हैैं तब किसी भी राजनीतिक दल के लिए यह ठीक नहीं कि वह न्यायाधीशों के विवाद में कूदे। यह सही है कि प्रेस कांफ्रेंस करने वाले सुप्रीम कोर्ट के चारों न्यायाधीशों ने मुख्य न्यायाधीश के तौर-तरीकों पर अपनी आपत्ति दर्ज कराई थी, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि एक तो खुद उन्होंने सारी बातें सार्वजनिक करने से इन्कार किया और दूसरे, उनमें से एक न्यायाधीश ने साफ तौर पर यह कहा है कि अन्य किसी को बीच में पड़ने की जरूरत नहीं है। एक तथ्य यह भी है कि चारों न्यायाधीशों और मुख्य न्यायाधीश के बीच मतभेद के कारणों की तह तक पहुंचे बिना इस नतीजे पर पहुंचना कठिन है कि कौन पक्ष कितना सही है? आखिर इन हालात में मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की जरूरत जताकर सीताराम येचुरी स्वयंभू न्यायाधीश बनने की कोशिश क्यों कर रहे हैैं? उन्हें यह स्पष्ट करना चाहिए कि वह किस आधार पर इस नतीजे पर पहुंच गए कि जजों के विवाद में सारा दोष मुख्य न्यायाधीश का है और वह भी इस हद तक कि उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाया जा सकता है? एक ऐसे समय जब चार न्यायाधीशों की ओर से प्रेस कांफ्रेंस करने से सुप्रीम कोर्ट की साख पहले से ही सवालों के घेरे में है तब मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग लाने की कोशिश इस संस्था की साख को और गिराने का ही काम करेगी।

संसद के किसी भी सदन का सदस्य न होने के बावजूद सीताराम येचुरी ने जिस तरह महाभियोग का शोशा उछाला उसके पीछे छुद्र राजनीति इसलिए भी दिख रही है, क्योंकि सभी को पता है कि प्रेस कांफ्रेंस की अगुआई करने वाले न्यायाधीश से मुलाकात करने का उतावलापन भाकपा सांसद डी राजा ने दिखाया था। क्या यह महज एक दुर्योग है कि भाकपा नेता प्रेस कांफ्रेंस करके देश को अवाक करने वाले न्यायाधीश से मुलाकात करना जरूरी समझते हैैं और माकपा नेता मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाना? कहीं येचुरी प्रकाश करात को चुनौती देने के लिए तो यह सब नहीं कर रहे हैैं? वामपंथी नेताओं को इतनी राजनीतिक समझ होनी ही चाहिए कि मौजूदा स्थिति में सत्तापक्ष की सहमति के बिना किसी न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने का कोई मतलब नहीं। ऐसा महाभियोग प्रस्ताव तो केवल सुप्रीम कोर्ट की किरकिरी ही कराएगा जिसको पेश किए जाने के आधार ही पुष्ट न हों। कहीं ऐसा तो नहीं कि वामपंथी नेताओं का इरादा संकट से घिरे सुप्रीम कोर्ट की साख को खत्म करना है? यह सवाल इसलिए, क्योंकि वामपंथी दल संस्थाओं को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए ही अधिक जाने जाते हैैं। अच्छा होगा कि वामपंथी दल और अन्य विपक्षी दल न्यायाधीशों के बीच के विवाद को राजनीतिक रोटियां सेंकने का जरिया न बनाएं।

[ मुख्य संपादकीय ]