कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के जिस वीडियो संदेश का इंतजार हो रहा था वह आखिरकार आ तो गया, लेकिन उसे देखने-सुनने के बाद इसी नतीजे पर पहुंचने के लिए विवश होना पड़ रहा कि उन्होंने हमेशा की तरह बिना विचारे अपनी बात कह डाली। उनका वीडियो मुख्यत: विदेश नीति पर केंद्रित है। उन्होंने मोदी सरकार की विदेश नीति पर केवल सवाल ही नहीं उठाए, बल्कि एक तरह से उस पर हमला ही बोल दिया। साफ है कि उन्होंने इस सर्वमान्य सिद्धांत की तनिक भी परवाह नहीं की कि विदेश नीति किसी दल की नहीं, देश की होती है। राहुल गांधी की मानें तो मौजूदा विदेश नीति बुरी तरह नाकाम है। पता नहीं कैसे वह इस निष्कर्ष पर भी पहुंच गए कि न तो दुनिया के बड़े देशों से हमारे संबंध अच्छे हैं और न ही पड़ोसी देशों से? यह नीर-क्षीर आकलन नहीं, महज आलोचना के लिए आलोचना करने की उनकी प्रवृत्ति का एक और प्रमाण ही अधिक है।

कम से कम विदेश नीति पर तो उन्हेंं संभलकर बोलना चाहिए था। अच्छा होता कि जितनी तैयारी उनके वीडियो को प्रभावशाली बनाने में की गई उतनी ही उनकी बात को तर्कसंगत तरीके से पेश करने में भी की जाती। पता नहीं वह किसकी सलाह से काम करते हैं, लेकिन यह विचित्र है कि विदेश नीति के जिस मोर्चे पर मोदी सरकार सबसे मजबूत है वह राहुल गांधी को सबसे कमजोर दिखा?

जब आलोचक भी यह मानते हैं कि मोदी सरकार ने विदेश नीति पर कहीं बेहतर काम किया है और उसके चलते दुनिया में भारत का कद बढ़ा है तब यदि राहुल को ऐसा कुछ नहीं दिख रहा तो इसका मतलब है कि वह अपनी खीझ निकालना चाह रहे थे। वह किस तरह बिना किसी तैयारी और बुनियादी जानकारी के बोले, यह इससे प्रकट हुआ कि उन्होंने श्रीलंका के जिस बंदरगाह के चीन के पास चले जाने की शिकायत की उसके लिए तो मनमोहन सरकार उत्तरदायी है। राहुल की समझ से चीन ने भारत को कमजोर होता देख लद्दाख में शरारत की, लेकिन दुनिया तो यह मान रही है कि उसने भारत की बढ़ती ताकत देखकर बदनीयती दिखाई।

चूंकि उन्होंने चीन पर विस्तार से चर्चा की इसलिए बेहतर होता कि वह इस पर भी प्रकाश डालते कि राजीव गांधी फाउंडेशन ने चीनी दूतावास से पैसा लेकर किसके हितों की पूर्ति की? यह दयनीय है कि विदेश नीति को लेकर राहुल गांधी बेहद लचर और खोखली दलीलों के साथ सामने आए। राहुल की दलीलों को विदेश मंत्री एस जयशंकर ने जिस तरह तार-तार किया उससे वह उपहास का ही पात्र बनेंगे, लेकिन इसके लिए दोषी भी वही होंगे।