कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी की ताजपोशी गौरवशाली अतीत वाली इस पार्टी के लिए एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है। राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने के साथ ही देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को युवा नेतृत्व मिल गया। यह संयोग एक बेहतर स्थिति का निर्माण करने वाला साबित हो सकता है। राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस प्रभावी रूप में काम करे, इसकी अपेक्षा सभी को होनी चाहिए, क्योंकि लोकतंत्र में सत्तापक्ष के साथ-साथ विपक्ष का भी अपना एक महत्व होता है। सशक्त एवं जिम्मेदार विपक्ष लोकतांत्रिक तौर-तरीकों को मजबूती प्रदान करता है और जब ऐसा होता है तो उससे देश भी लाभान्वित होता है। मौजूदा राजनीतिक माहौल में जब सत्तापक्ष के तौर पर भाजपा लगातार बढ़त हासिल करती दिख रही है तब तमाम कमजोरियों के बाद भी यह कांग्रेस ही है जो जिम्मेदार विपक्ष की कमी को पूरा कर सकती है। इस भूमिका का निर्वाह कर सकने का सामथ्र्य अन्य किसी दल में नहीं नजर आता और शायद इसीलिए वही विपक्ष का नेतृत्व भी कर रही है। स्पष्ट है कि कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के साथ-साथ विपक्षी दल भी यह चाहेंगे कि राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस मजबूत विपक्ष के खांचे में फिट हो। यह स्वाभाविक ही है कि नई जिम्मेदारी मिलने के साथ ही उनकी चुनौतियां और बढ़ती दिख रही हैैं। उन्होंने अपनी भावी राजनीतिक दशा-दिशा के कुछ संकेत अपने संबोधन में अवश्य दिए, लेकिन अध्यक्ष के तौर पर उनका यह पहला भाषण उतना प्रेरक-प्रभावी नहीं रहा जितना वह था जो उन्होंने उपाध्यक्ष बनते समय दिया था।
चूंकि राहुल गांधी के लिए यह एक खास दिन था इसलिए बेहतर होता कि वह आरोप-प्रत्यारोप के फेर में नहीं पड़ते। पता नहीं क्यों इस खास दिन भी उन्होंने कांग्रेस के बारे में कम और भाजपा के बारे में ज्यादा बोला? उनके भाषण से एक बार फिर इसी बात की झलक मिली कि वह भाजपा के सत्ता में आने की बात दिमाग से निकाल नहीं पाए हैैं। उन्होंने भाजपा पर यह आरोप भले लगाया हो कि वह गुस्से की राजनीति करती है, लेकिन यह बयान करते हुए वह खुद भी गुस्सा करते नजर आए। राहुल गांधी एक अर्से से कांग्रेस के साथ सिस्टम में बदलाव की जरूरत रेखांकित करते चले आ रहे हैैं, लेकिन इसके लिए उनकी राजनीतिक शैली और चिंतन में जैसा परिवर्तन दिखना चाहिए वह देखने को नहीं मिल रहा है। यही चिंता का विषय है। आखिर जब दस साल तक कांग्रेस की सरकार रही तब सिस्टम क्यों नहीं बदल सका? इसी तरह कांग्रेस उपाध्यक्ष के तौर पर उन्होंने पार्टी में जो तमाम बदलाव करने चाहे थे वे संभव क्यों नहीं हो सके? यह भी समझ नहीं आया कि कोई किसी राजनीतिक दल को गरीबों के लिए काम करने से कैसे रोक सकता है? बेहतर हो कि राहुल गांधी कांग्रेस के उस दौर की याद करें जब वह एक मध्यमार्गी और समाज के सभी तबकों का प्रतिनिधित्व करने वाले दल के रूप में जानी जाती थी। इस क्रम में वह यह भी स्मरण करें तो बेहतर कि नरसिंह राव के दौर वाली भी एक कांग्रेस थी जिसने देश की दिशा बदलने और उसे संभालने-संवारने का काम किया।

[ मुख्य संपादकीय ]