कांग्रेस की मानें तो राहुल गांधी अभी भी अपने इस्तीफे पर अडिग हैैं। संशय केवल इस पर ही नहीं है कि वह अध्यक्ष पद सचमुच छोड़ने जा रहे हैैं या नहीं, बल्कि इस पर भी है कि कांग्रेस के विभिन्न नेताओं और खासकर पार्टी के प्रदेश अध्यक्षों की ओर से त्यागपत्र की जो पेशकश की जा रही है वह मंजूर होगी या नहीं? देखना यह भी है कि क्या इस्तीफे की पेशकश करने वाले नेताओं में वे भी हैैं जिन पर राहुल गांधी ने यह आक्षेप किया कि उन्होंने अपने बेटों को चुनाव जिताने पर ज्यादा ध्यान दिया? राहुल गांधी को यह पहले से पता होना चाहिए था कि कोई भी नेता हो वह अपने बेटे के चुनाव जीतने की ज्यादा चिंता करेगा ही और इस कोशिश में अन्य प्रत्याशियों की अनदेखी हो सकती है।

क्या ऐसा कुछ है कि राहुल गांधी की अनिच्छा के बाद भी कमलनाथ और अशोक गहलोत जैसे नेता अपने बेटों को प्रत्याशी बनाने में समर्थ हो गए? नि:संदेह राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र के लिए स्थान होना ही चाहिए, लेकिन इतना भी नहीं कि बड़े नेता या क्षत्रप अपनी मनमानी करने में समर्थ रहें। अगर राहुल गांधी इस मनमानी को रोक नहीं सके तो इसका मतलब है कि वह पार्टी को सही तरह से संचालित नहीं कर पा रहे हैैं या फिर उनकी सुनी नहीं जा रही है।

राहुल गांधी ने जब कांग्रेस अध्यक्ष पद संभाला था तो ऐसे संकेत दिए थे कि वह नई पीढ़ी के नेताओं को आगे बढ़ने का अवसर देंगे, लेकिन बाद में वह नई और पुरानी पीढ़ी के बीच संतुलन बनाने की कोशिश में लग गए। वह इसमें नाकाम रहे और इसकी एक वजह नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के बीच की खींचतान भी दिखती है। इस खींचतान के साथ ही उन फैसलों की भी अनदेखी नहीं की जा सकती जो कांग्रेस के लिए संकट का कारण बने अथवा जिनके चलते जनता में भ्रम फैला। आखिर महागठबंधन बनाने के दावे किए जाने के बाद भी उसे आकार क्यों नहीं दिया जा सका? यह समझना भी कठिन है कि चुनाव के ठीक पहले प्रियंका गांधी को महासचिव बनाकर राजनीति में सक्रिय करने की क्या जरूरत थी? नि:संदेह अमेठी के साथ वायनाड से भी चुनाव लड़ने के फैसले को भी बहुत सुविचारित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इससे उत्तर भारत की जनता को सही संदेश नहीं गया। यह मानने के भी अच्छे-भले कारण हैैं कि घोषणा पत्र के कुछ मुद्दे भी कांग्रेस के लिए मुसीबत का कारण बने।

सवाल यह है कि इन सब फैसलों के लिए कौन जिम्मेदार है? इस सवाल का जवाब मिलने के साथ ही यह संदेह भी दूर होना चाहिए कि कहीं कांग्रेसी नेताओं का कोई ऐसा गुट तो नहीं जो राहुल को असफल होते हुए देखना चाहता हो? राहुल के इस्तीफे की पेशकश जो भी रंग लाए, यह जरूरी है कि कांग्रेस संगठित नजर आएं और संगठन में ऐसे नेताओं को महत्व मिले जो जनाधार वाले हैैं। पार्टी को ऐसे नेताओं से भी बचना होगा जो वामपंथी विचारों से कुछ ज्यादा ही प्रभावित हैैं। यह ठीक नहीं कि कांग्रेस वैचारिक रूप से वामपंथी दलों सरीखी नजर आए।

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