सोनिया गांधी को कांग्रेस संसदीय दल का नेता चुना जाना और उनकी ओर से राहुल गांधी के चुनावी संघर्ष की तारीफ किए जाने से यही संकेत मिल रहा है कि पार्टी में सब कुछ पहले की ही तरह होगा। इसकी पुष्टि राहुल गांधी की ओर से दिए गए उस संबोधन से भी होती है जिसमें उन्होंने अपने सांसदों से कहा कि भले ही हमारी संख्या 52 हो, लेकिन इसी संख्याबल से हम भाजपा से इंच-इंच की लड़ाई लड़ने में सक्षम हैं। राहुल गांधी जिस तरह भाजपा से इंच-इंच की लड़ाई की जरूरत महसूस कर रहे हैैं उससे तो यही लगता है कि वह जनादेश को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैैं। शायद इसीलिए इस तरह के आकलन पेश किए जा रहे हैैं कि अमेठी में उनकी पराजय के लिए सपा-बसपा दोषी हैैं। इसके पहले मीडिया और चुनाव आयोग पर भी इसी तरह के दोषारोपण किए जा चुके हैैं।

क्या कांग्रेस अध्यक्ष यह कहना चाह रहे हैैं कि पार्टी की पराजय में उनकी रीति-नीति का कोई दोष नहीं? यह अजीब है कि वह ऐसी ही प्रतीति करा रहे हैैं। अगर सोच यह है कि कांग्रेस अपनी कमजोरियों के कारण नहीं हारी तो फिर इसका मतलब है कि पराजय के कारणों पर आत्ममंथन के नाम पर खानापूरी हो रही है। राहुल गांधी ने यह भी कहा कि कांग्रेस के हर कार्यकर्ता को यह याद रखना चाहिए कि हमारी लड़ाई देश के प्रत्येक व्यक्ति और संविधान के लिए है। क्या वह संविधान को खतरे में देख रहे हैैं? क्या कांग्रेस के पराजित होने का यह मतलब निकाला जाना चाहिए कि संविधान के लिए खतरा पैदा हो गया है?

अच्छा होता कि राहुल गांधी और साथ ही कांग्रेस के अन्य नेता यह महसूस करते कि हद से ज्यादा नकारात्मक चुनावी अभियान ने ही पार्टी को नुकसान पहुंचाया। मुश्किल यह है कि राहुल गांधी देश के मौजूदा हालात को ब्रिटिशकालीन भारत जैसा बताते हुए यहां तक कह रहे हैैं कि तब कोई भी संस्था कांग्रेस का समर्थन नहीं कर रही थी और फिर भी वह जीती। राहुल गांधी ने यह कहते हुए जिस तरह अपने सांसदों का उत्साहवर्धन करने की कोशिश की कि इस बार आपको और आक्रामकता दिखाने एवं और जोर से बोलने के लिए तैयार रहना चाहिए वह नकारात्मक राजनीति का ही प्रदर्शन है। अच्छा हो कि कोई उन्हें बताए कि संसद में अनावश्यक उग्रता का प्रदर्शन करना ही राजनीति नहीं है और ऐसा करके संसद की कार्यवाही को तो ठप किया जा सकता है, लेकिन लोगों के भरोसे को हासिल नहीं किया जा सकता।

यह कोई शुभ संकेत नहीं कि जो राहुल गांधी चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि को तहस-नहस करने के लिए तैयार दिख रहे थे वह अब यह चुनौती दे रहे हैैं कि उनकी आक्रामकता से भाजपा को बच निकलने का कोई मौका नहीं मिलने वाला। क्या उन्होंने संसद को लड़ाई का अखाड़ा समझ लिया है? अगर नहीं तो फिर बेहतर होगा कि वह अपनी भाषा और अपने तेवरों पर गौर करें। उन्हें यह भी समझ आना चाहिए कि कांग्रेस के रूप में देश एक सशक्त विपक्ष की अपेक्षा कर रहा है, न कि झगड़ालू दल की।

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