यदि सरकार वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी पर अमल के एक वर्ष पूरे होने को एक उपलब्धि के तौर पर देख रही है तो यह स्वाभाविक ही है। भारत सरीखे बड़े देश में एक नई टैक्स प्रणाली को क्रियान्वित करना एक बड़ा काम ही कहा जाएगा। इस पर आश्चर्य नहीं कि इसे आजादी के बाद सबसे बड़े टैक्स सुधार की संज्ञा दी गई। यह अच्छा है कि एक साल बाद इस टैक्स व्यवस्था को उन अनेक समस्याओं से मुक्ति मिलती दिख रही है जो प्रारंभ में सामने आई थीं और जिनके चलते कारोबारियों में नाराजगी घर कर रही थी। चूंकि इस नाराजगी को राजनीतिक मसला बनाकर चुनावी लाभ उठाने की कोशिश की गई इसलिए जीएसटी की जटिलताओं को दूर करना सरकार के लिए एक चुनौती बन गया था।

हालांकि एक बड़ी हद तक इस चुनौती से पार पा लिया गया है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अभी भी कुछ समस्याएं शेष हैं। अब जब सरकार जीएसटी के एक साल को एक उपलब्धि के तौर पर रेखांकित करने जा रही है तब फिर उसे इस पर भी ध्यान देना होगा कि यह टैक्स व्यवस्था और अधिक सुगम कैसे बने? इसी के साथ उसे रिवर्स चार्ज मैकेनिज्म सरीखी लंबित व्यवस्थाओं पर आगे बढ़ने की भी तैयारी करनी होगी, लेकिन ऐसा करते समय उसे यह सावधानी बरतनी होगी कि वैसी समस्याएं आड़े न आने पाएं जैसी पहले जीएसटी को लागू करते समय और फिर ई-वे बिल को अपनाते समय आई थीं।

यह हैरानी की बात ही है कि तकनीक के क्षेत्र के पेशेवर लोगों की भागीदारी के बावजूद तकनीकी बाधाएं दूर होने का नाम नहीं ले रही हैं। कम से कम एक साल बाद तो तकनीकी बाधाओं को दूर कर ही लिया जाना चाहिए। नि:संदेह प्रत्येक नई व्यवस्था में कुछ न कुछ समस्या आती ही है, लेकिन वह तब संकट बन जाती है जब उससे संबंधित तकनीक साथ नहीं देती।

जीएसटी के एक साल बाद यह भी देखा जाना चाहिए कि टैक्स चोरी के तौर-तरीकों पर लगाम कैसे लगे? इन तौर-तरीकों के खिलाफ सख्ती बरतने में तभी आसानी होगी जब रिटर्न फाइल करने की प्रक्रिया भी आसान बनेगी। जीएसटी का दूसरा साल पहले के मुकाबले कहीं अधिक आसान और लक्ष्यों को पूरा करने वाला बनना चाहिए। नि:संदेह ऐसा तभी हो पाएगा जब जीएसटी संबंधी कानून में बदलाव का काम अपेक्षित समय में पूरा हो जाए।

अब यह भी समय की मांग है कि जीएसटी के स्लैब कम करने के बारे में किसी फैसले पर पहुंचा जाए। जब सभी यह मान रहे हैं कि चार स्लैब ज्यादा हैं तो फिर किसी नतीजे पर पहुंचा जाना चाहिए। रियल एस्टेट को जीएसटी के दायरे में लाने पर भी फैसले की दरकार है। इस बारे में कोई फैसला होने पर ही पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी के दायरे में लाने पर कोई सार्थक चर्चा संभव है। चूंकि जीएसटी परिषद ने आम सहमति से काम करने के मामले में एक मिसाल कायम की है और अभी तक किसी भी मामले में मतदान के जरिये फैसला कराने की नौबत नहीं आई है इसलिए इस परिषद को एक अनुकरणीय उदाहरण के तौर पर देखा जाना चाहिए।