लोकसभा चुनाव नतीजे आने के ठीक पहले चुनाव आयोग के आयुक्तों में मतभेद की खबरें उनके बीच तनातनी के रूप में सामने आना इस संस्था की छवि के लिए ठीक नहीं। चुनाव आयुक्त अशोक लवासा इससे क्षुब्ध बताए जाते हैैं कि आचार संहिता के उल्लंघन की शिकायतों को लेकर जो फैसले लिए गए उनमें उनकी असहमति को फैसले का हिस्सा नहीं बनाया जा रहा। वह इस हद तक रुष्ट हैैं कि आयोग की बैठकों में भी शामिल नहीं हो रहे हैैं। पहली नजर में यह लगता है कि यदि किसी फैसले में चुनाव आयुक्त की असहमति है तो वह दर्ज होनी ही चाहिए, लेकिन वास्तव में मामला यह है कि अशोक लवासा अपनी असहमति को फैसले का हिस्सा बनाकर उसे सार्वजनिक करना चाहते हैैं। एक तरह से वह यह चाह रहे हैैं कि चुनाव आयोग में सुप्रीम कोर्ट वाली वह व्यवस्था लागू हो जिसके तहत यदि किसी तीन सदस्यीय पीठ में कोई एक न्यायाधीश शेष दो न्यायाधीशों के विचारों से अलग विचार रखता है तो फैसले में यह लिखा जाता है कि उन्होंने बहुमत के विपरीत ऐसा-ऐसा कहा। अशोक लवासा की मांग तब उचित कही जा सकती थी, जब पहले भी ऐसा होता रहा हो।

आखिर जब पहले चुनाव आयोग की ओर से बहुमत से लिए गए फैसलों में असहमति जताने वाले आयुक्त की टिप्पणी फैसले का हिस्सा नहीं बनती थी तो अब क्यों बननी चाहिए? समझना कठिन है कि अशोक लवासा एक नई परंपरा क्यों स्थापित करना चाह रहे हैैं? उनकी आपत्ति इसलिए अनावश्यक लगती है, क्योंकि किसी भी मामले में चुनाव आयुक्तों की ओर से जो भी फैसले लिए जाते हैैं उनका निर्धारण बहुमत के आधार पर होता है और फैसले पर विचार करते समय किसने क्या कहा, इसका विवरण फाइलों का हिस्सा बनता है। जो असहमति किसी न किसी रूप में दर्ज होती ही है उसे सार्वजनिक करने की अपेक्षा क्यों? अशोक लवासा यह क्यों चाहते हैैं कि देश-दुनिया को यह पता लगे कि बहुमत से लिए गए फैसलों में अल्पमत वाला विचार उनका था?

एक समय चुनाव आयोग में एक ही आयुक्त हुआ करता था। जब टीएन शेषन मुख्य चुनाव आयुक्त थे तब उसे तीन सदस्यीय बनाने का फैसला किया गया। इसके पीछे मकसद यही था कि आयोग कहीं अधिक नीर-क्षीर से ढंग से फैसला ले। टीएन शेषन के बाद चुनाव आयोग अपने तीन आयुक्तों के साथ प्रभावी ढंग से काम करता रहा और यदि कभी उनके बीच मतभेद रहे भी हों तो वे उस तरह सार्वजनिक नहीं हुए जैसे अब हुए हैैं। किसी संस्था में मतभेद होना कोई खराब बात नहीं। खराब बात है मतभेदों को तूल देना। फिलहाल यही हो रहा है। चुनाव आयोग ही नहीं किसी भी संस्था के हित में यही है कि मतभेदों के बावजूद मिलजुलकर काम किया जाए। पता नहीं मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा के स्पष्टीकरण के बाद चुनाव आयुक्त अशोक लवासा अपने रुख में नरमी लाते हैैं या नहीं, लेकिन यह ठीक नहीं कि वह अपनी असहमति को कुछ ज्यादा ही तूल देते हुए दिख रहे रहे हैैं। कम से कम जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों को तो ऐसा करने से बचना ही चाहिए।

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