कुछ तिथियां ऐसी होती हैं, जो समय की शिला पर अमिट छाप छोड़ जाती हैं। ऐसी ही तिथि रही 28 मई 2023। इस दिन संसद के नए भवन के उद्घाटन के साथ ही एक नए इतिहास का निर्माण हुआ। स्वतंत्र भारत की संसद के नए भवन का उद्घाटन एक गौरवशाली क्षण है। इस ऐतिहासिक अवसर को जो महत्ता और गरिमा प्रदान की गई, वह समय की मांग थी।

संसद के नए भवन का रिकार्ड समय में निर्माण और उसका भारतीयता से पगे माहौल में उद्घाटन ने आत्मनिर्भर और आत्मविश्वास से भरे भारत की एक नई झलक पेश की। वास्तु, विरासत, कला, संस्कृति के साथ संविधान की छवियों को समेटे संसद के नए भवन के भव्य उद्घाटन ने यह विश्वास पैदा करने का काम किया कि अमृतकाल में भारत नई ऊंचाइयां स्पर्श करेगा और उन सपनों को साकार करेगा, जो हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने देखे थे।

यह दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि जब सभी दलों को इस अनूठे अवसर का साक्षी बनना चाहिए था, तब अनेक विपक्षी दलों ने नकारात्मकता का परिचय देते हुए संसद के नए भवन के उद्घाटन समारोह का बहिष्कार करना उचित समझा। ऐसा करके उन्होंने न केवल एक महान अवसर को गंवाने का काम किया, बल्कि यह भी प्रकट किया कि वह देश को गौरवान्वित करने वाले अवसरों पर भी अपनी क्षुद्रता से ऊपर उठने के लिए तैयार नहीं हो पाते। इससे लज्जाजनक और कुछ नहीं हो सकता कि जब उन्हें अपने घोर नकारात्मक रवैये पर शर्मिंदा होना चाहिए था, तब वे अपने कुतर्कों से संसद के नए भवन के उद्घाटन पर अशोभनीय टिप्पणियां करने में लगे हुए थे।

दुर्भाग्य केवल यह नहीं कि एक ऐतिहासिक और मांगलिक अवसर पर अनावश्यक टिप्पणियां की गईं, बल्कि मर्यादा का पालन करने से भी इन्कार किया गया। संसद के नए भवन का निर्माण आवश्यक हो गया था, इस तथ्य से परिचित होने के बाद भी विपक्ष के किसी नेता ने कहा कि उसकी आवश्यकता ही क्या थी तो किसी अन्य ने उसकी तुलना ताबूत से करने की धृष्टता करने में भी शर्म नहीं की। एक शुभ अवसर पर ऐसे अशोभनीय व्यवहार की केवल निंदा ही की जा सकती है।

संसद के नए भवन के उद्घाटन का बहिष्कार करने वाले विपक्षी दलों ने अपने रवैये से यही स्पष्ट किया कि वह इस अवसर से दूरी बनाने के लिए किसी सस्ते बहाने की तलाश कर रहे थे और वह उन्होंने इसमें खोज निकाला कि उद्घाटन राष्ट्रपति के हाथों क्यों नहीं कराया जा रहा है? यह एक बहाना था और इसका उद्देश्य केवल येन-केन प्रकारेण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को कठघरे में खड़ा करना और एक पावन अवसर पर खलल डालना था। क्या इससे विचित्र और कुछ हो सकता है कि जो विपक्षी दल अंग्रेजों के बनाए संसद भवन में बैठने को तैयार थे, वे स्वतंत्र भारत में निर्मित संसद के उद्घाटन में शामिल होने को तैयार नहीं हुए?