सुप्रीम कोर्ट कलेजियम ने जिस तरह जजों की नियुक्ति के लिए तय नामों की सिफारिश दोहराते हुए उनकी वरिष्ठता बनाए रखने पर जोर दिया, उसका अर्थ है कि वह सरकार की आपत्तियों पर ध्यान देने को तैयार नहीं। अब सभी की निगाहें इस पर होना स्वाभाविक है कि सरकार क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करती है? सुप्रीम कोर्ट कलेजियम की पहल से यदि कुछ स्पष्ट है तो यही कि उसने अपने रुख पर अडिग रहने का फैसला कर लिया है। इससे सरकार और उसके बीच टकराव बढ़ सकता है।

आवश्यकता टकराव की नहीं, बल्कि समाधान तलाशने की है। यह समाधान तब मिलेगा, जब सुप्रीम कोर्ट के साथ ही सरकार भी अपने रुख पर विचार करने के लिए तैयार होगी। एक लंबे समय से जहां सरकार कलेजियम व्यवस्था की विसंगतियों को रेखांकित करने में लगी हुई है, वहीं सुप्रीम कोर्ट इस व्यवस्था को संविधानसम्मत ठहराने में लगा हुआ है। इसे इसलिए स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि एक तो विश्व के किसी प्रतिष्ठित लोकतंत्र में जज ही जज की नियुक्ति नहीं करते और दूसरे संविधान में कलेजियम व्यवस्था का कोई उल्लेख नहीं। सभी इससे परिचित हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने लगभग तीन दशक पहले अपने ही एक फैसले के माध्यम से जजों की नियुक्तियों, स्थानांतरण और पदोन्नति का अधिकार अपने हाथ में ले लिया था।

यदि सुप्रीम कोर्ट यह समझ रहा है कि कलेजियम व्यवस्था को संविधानसम्मत बताने से उसे स्वीकार कर लिया जाएगा तो यह संभव नहीं। इसी तरह इससे भी बात बनने वाली नहीं कि सरकार इस व्यवस्था की विसंगतियों को बयान करती रहे। उसे इस व्यवस्था में बदलाव के लिए सक्रिय होना चाहिए। इसके प्रति सुप्रीम कोर्ट को भी लचीला रुख अपनाना चाहिए। यह ठीक नहीं कि सुप्रीम कोर्ट की ओर से केंद्रीय कानून मंत्री के उस पत्र का कोई उत्तर नहीं दिया गया, जिसमें उन्होंने कलेजियम व्यवस्था में सरकार के प्रतिनिधियों की भागीदारी की बात कही थी। आखिर इसमें गलत क्या है?

यह सही समय है कि सरकार और सुप्रीम कोर्ट कलेजियम व्यवस्था को लेकर संवाद करें। संवाद के स्थान पर विवाद खड़ा करने से किसी का हित होने वाला नहीं है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि न्यायपालिका में सुधार का जो अभाव है, उसके दुष्परिणाम पूरे देश को भोगने पड़ रहे हैं। समझना कठिन है कि यदि सरकार और सुप्रीम कोर्ट न्याय क्षेत्र के अन्य विषयों, जैसे कि न्यायालयों के निर्णयों को क्षेत्रीय भाषा में उपलब्ध कराने पर एकमत हो सकते हैं और एक दूसरे की सराहना भी कर सकते हैं तो अन्य विषयों और विशेष रूप से उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति पर मतैक्य क्यों नहीं रख सकते? इस संदर्भ में संसद या संविधान को सर्वोच्च बताने का कोई अर्थ नहीं, क्योंकि यदि कोई सर्वोच्च है तो वह है देश के लोगों की इच्छा।