सीबीआइ के निदेशक और उसके विशेष निदेशक के बीच जारी उठापटक जिस तरह एक-दूसरे पर आरोप मढ़ने में तब्दील हुई और अब मामला एफआइआर दर्ज कराने तक पहुंच गया उससे इन दोनों अधिकारियों के साथ ही इस संस्था की भी छवि तार-तार हो रही है। चूंकि सीबीआइ देश की शीर्ष जांच एजेंसी है इसलिए उसमें मचे घमासान से सरकार की प्रतिष्ठा पर भी सवाल उठना स्वाभाविक है। सीबीआइ के इन दोनों अफसरों के बीच की तनातनी नई नहीं है। समझना कठिन है कि सरकार समय रहते हस्तक्षेप कर उनके झगड़े को सुलझाने में नाकाम क्यों रही? कम से कम अब तो उसे सक्रिय होना ही चाहिए। हालांकि किसी संस्था के प्रमुख अफसरों के बीच खींचतान कोई नई-अनोखी बात नहीं, लेकिन यह तो अकल्पनीय है कि सीबीआइ जैसी संस्था अपने ही विशेष निदेशक के खिलाफ एफआइआर दर्ज करा दे।

यह सहज ही समझा जा सकता है कि यह एफआइआर सीबीआइ निदेशक की अनुमति के बगैर दर्ज नहीं हुई होगी। इस सनसनीखेज एफआइआर के हिसाब से विशेष निदेशक राकेश अस्थाना ने भ्रष्टाचार के एक मामले की जांच को प्रभावित करने के लिए दो करोड़ रुपये की घूस ली है। इस गंभीर आरोप से घिरे अस्थाना इससे इन्कार कर रहे हैं और सीबीआइ निदेशक आलोक वर्मा पर ऐसे ही आरोप लगा रहे हैं। आरोप-प्रत्यारोप के इस सिलसिले के बीच आम जनता के लिए यह समझना कठिन है कि वह किसे सही माने-सीबीआइ निदेशक को या फिर इस संस्था के दूसरे नंबर के अफसर को।

चूंकि दोनों ही अफसर एक-दूजे पर भ्रष्टाचार के मामलों की जांच में हेराफेरी करने का आरोप लगा रहे हैं इसलिए अगर आम लोग दोनों की निष्ठा को संदिग्ध समझें तो इसके लिए उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता, क्योंकि यह तो नहीं ही कहा जा सकता कि भ्रष्टाचार के बड़े मामलों की जांच में हेरफेर नहीं होती। यह किसी से छिपा नहीं कि सीबीआइ के दो पूर्व निदेशकों पर भ्रष्टाचार के मामलों की जांच को आंच दिखाने के गंभीर आरोप लग चुके हैं। यह भी एक तथ्य है कि भ्रष्टाचार के बड़े मामलों की जांच में सीबीआइ का रिकार्ड बहुत अच्छा नहीं। इसमें संदेह है कि सीबीआइ के शीर्ष पर छिड़ी जंग को शांत करने में केंद्रीय सतर्कता आयोग सफल हो सकता है, क्योंकि आरोपों के छींटे उसके अफसर पर भी हैं।

यह सही है कि सीबीआइ निदेशक का कार्यकाल तय होता है, लेकिन जब उसके आला अफसर एक-दूसरे के खिलाफ तलवार ताने हों तब सरकार को कुछ ऐसा करना ही होगा जिससे इस संस्था की छवि गिरने से बचे। अगर सरकार ने सीबीआइ को वास्तव में स्वायत्त बनाने और उसकी कार्यप्रणाली को दुरुस्त करने की कोशिश की होती तो शायद आज जो देखने को मिल रहा है उससे बचा जा सकता था। बेहतर होगा कि सरकार सीबीआइ में व्याप्त कलह को शांत करने के साथ ही उसके काम को सुधारने के लिए ठोस कदम उठाए। ऐसे कदमों के अभाव में ही सीबीआइ भ्रष्टाचार और साथ ही अन्य मामलों की जांच करने वाली एक सक्षम और विश्वसनीय संस्था नहीं बन सकी है। सरकार इससे संतुष्ट नहीं हो सकती कि उसके शीर्ष पर भ्रष्टाचार पर लगाम लगी है, क्योंकि अन्यत्र वह बेलगाम दिखता है।