पूर्वी लद्दाख में गोगरा इलाके से चीनी सेना का पीछा हटना भारत के लिए एक बड़ी सफलता है, लेकिन यह ध्यान में रखना होगा कि इस सैन्य गतिरोध का समाधान दोनों पक्षों के बीच लंबी बातचीत के बाद हो सका। कायदे से इस साल फरवरी में पैंगोंग झील इलाके से सेनाओं को पीछे हटाने पर सहमति बन जाने के बाद अन्य क्षेत्रों में भी आमने-सामने खड़ी सेनाओं को अपने स्थान पर लौट जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो चीन के अड़ियल रवैये के कारण। चीन खुद की ओर से पैदा किए गए सैन्य गतिरोध को सुलझाने के मामले में किस तरह अड़ियल रवैया अपनाता है और दूसरे पक्ष को थकाने की रणनीति पर चलता है, इसका एक प्रमाण यह है कि अभी हाट स्प्रिंग और देपसांग इलाके से चीन अपनी सेना को पीछे लौटाने के लिए तैयार नहीं। यह अच्छा है कि भारत चीन की थकाने वाली रणनीति को समझ गया है और वह भी उसे उसकी ही भाषा में जवाब दे रहा है। शायद यही कारण है कि चीन एक के बाद एक इलाकों से अपने कदम पीछे खींचने के लिए मजबूर हो रहा है, लेकिन जब तक पैंगोंग और गोगरा की तरह से बाकी इलाकों से चीन अपनी सेना को पीछे नहीं लौटाता, तब तक उस पर भरोसा नहीं किया जाना चाहिए।

भारत को अपनी यह बात बार-बार दोहराते रहना चाहिए कि जब तक सीमा पर यथास्थिति कायम नहीं हो जाती, तब तक दोनों देशों के संबंधों में सुधार नहीं आ सकता। भारत को केवल सैन्य गतिरोध वाले शेष इलाकों से ही सेनाओं की वापसी पर जोर नहीं देना चाहिए, बल्कि यह भी रेखांकित करना चाहिए कि संबंधों में सुधार के लिए सीमा विवाद को हल करना आवश्यक है। इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि चीन सीमा विवाद को हल करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रहा है। यह सामान्य बात नहीं कि सीमा विवाद को लेकर बीते दो दशक से भी अधिक समय से बातचीत हो रही है, लेकिन मामला जहां का तहां है। इससे यही पता चलता है कि चीन सीमा पर छेड़छाड़ करने के इरादे से ही सीमा विवाद को हल करने की दिशा में आगे नहीं बढ़ रहा है। चीन पर दबाव बढ़ाने के लिए जरूरी केवल यह नहीं है कि सीमा पर उसकी सेना के अतिक्रमणकारी रुख पर सख्त रवैया अपनाया जाए, बल्कि यह भी है कि उस पर आर्थिक निर्भरता कम करने के प्रयासों को जारी रखा जाए। चूंकि इस दिशा में वैसी सफलता नहीं मिली, जैसी अपेक्षित थी, इसलिए यह देखा जाना चाहिए कि ऐसा क्यों है? यह ठीक नहीं कि चीनी वस्तुओं का आयात कम होने का नाम नहीं ले रहा है।