भारत और चीन के वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों के बीच हुई बातचीत से कोई नतीजा न निकलने पर हैरानी नहीं। चीन की बदनीयती को देखते हुए इसके ही आसार थे कि इस बातचीत का भी वही हश्र होगा, जो पिछली छह बार की वार्ताओं का हुआ। अब भारत को इस निष्कर्ष पर पहुंचने में देर नहीं करनी चाहिए कि चीन अपने अड़ियल रवैये से बाज आने वाला नहीं है और उससे निपटने के लिए कुछ अन्य उपाय करने होंगे। इन उपायों की आवश्यकता चीन के इस बेतुके बयान के बाद और बढ़ गई है कि वह लद्दाख एवं अरुणाचल प्रदेश को भारत का हिस्सा नहीं मानता।

इस बेहूदगी का सीधा और चीन को आसानी से समझ में आने वाला जवाब यही हो सकता है कि भारत भी तथाकथित एक चीन नीति को खारिज करता है और यह मानता है कि तिब्बत एवं ताइवान पर उसका अवैध कब्जा है।

लद्दाख और अरुणाचल को लेकर दिए गए चीन के ताजा बयान से उस अंदेशे की पुष्टि ही होती है, जिसे पिछले दिनों रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने सीमांत क्षेत्रों में 44 पुलों के लोकार्पण के दौरान व्यक्त किया था। उनका कहना था कि चीन और पाकिस्तान मिलकर भारत के खिलाफ साजिश रच रहे हैं। चीन ने इन पुलों के निर्माण पर आपत्ति जताकर उनके अंदेशे को सही ठहराने का ही काम किया।

यह हास्यास्पद है कि चीन खुद तो भारत से लगती सीमा के निकट हर तरह के निर्माण करने में लगा हुआ है, लेकिन यह चाह रहा है कि भारत ऐसा न करे। ऐसे में यही आवश्यक है कि भारत चीन की निराधार आपत्तियों पर बिल्कुल भी ध्यान न दे।

चीन को बिना किसी लाग-लपेट यह बताने का भी वक्त आ गया है कि यदि वह भारत के हितों की चिंता करने को तैयार नहीं तो उसके हितों की भी परवाह संभव नहीं। चूंकि चीन अपने अतिक्रमणकारी रवैये से करीब-करीब हर पड़ोसी देश को तंग करने में लगा हुआ है, इसलिए भारत को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उसके खिलाफ माहौल बनाने और उसकी घेराबंदी करने के लिए सक्रिय होना होगा।

भारत को विश्व मंच पर यह सवाल उठाना चाहिए कि आखिर इसका क्या औचित्य कि अंतरराष्ट्रीय नियम-कानूनों को बेशर्मी के साथ धता बताने वाला कोई देश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बना रहे?

अपनी आर्थिक ताकत के नशे में चूर चीनी शासन की यदि किसी से तुलना हो सकती है तो हिटलर के जमाने वाले नाजी जर्मनी से या फिर आज के उत्तर कोरिया से। भारत को इसे लेकर दुनिया को चेताने की जरूरत है कि परमाणु हथियार संपन्न चीन विश्व व्यवस्था को तहस-नहस करने पर आमादा है।