भारतीय और चीनी सेना के उच्च अधिकारियों के बीच लद्दाख में उभरे सीमा विवाद को लेकर हुई बैठक के बाद जिस तरह यह कहा गया कि दोनों पक्ष आगे भी बातचीत जारी रखेंगे उससे यही रेखांकित हो रहा है कि अभी विवाद का समाधान होना शेष है। इसका एक अर्थ यह भी है कि चीन अपने अड़ियल रुख को छोड़ने के लिए तैयार नहीं। यह ठीक है कि लद्दाख में उसकी सेनाएं कुछ पीछे हटी हैं, लेकिन इतना भी नहीं कि गतिरोध दूर हो सके। इस तरह के गतिरोध कायम करना और फिर उस पर अड़े रहना चीन की पुरानी आदत है। इसका प्रमाण इससे भी मिलता है कि लद्दाख में चीनी सेनाओं के हालिया दखल से उपजे हालात को सुलझाने के लिए दोनों पक्षों के बीच बातचीत के कई दौर चले, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। उम्मीद की जा रही थी कि मेजर जनरल स्तर की वार्ता से समस्या का समाधान होगा, लेकिन ऐसा होता नहीं दिखा। नि:संदेह इसे लेकर कयास नहीं लगाए जा सकते कि आगे क्या होगा, लेकिन इतना तो है ही कि अब चीन भरोसे के काबिल नहीं रहा। वह एक ओर दोस्ती का दम भरता है और दूसरी ओर भारत को नीचा दिखाने की हरकतें करता रहता है। ऐसी हरकतों की सूची लगातार लंबी होती जा रही है।

आतंकी सरगना मसूद अजहर पर पाबंदी के मामले से लेकर परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह यानी एनएसजी में भारत की सदस्यता तक में चीन की अड़ंगेबाजी को भूला नहीं जा सकता। इसी तरह इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि वह कश्मीर पर किस तरह बेसुरा राग अलापता है और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में यह जानते हुए भी अपनी परियोजनाओं को आगे बढ़ाने में जुटा है कि यह भूभाग भारत का हिस्सा है। यदि चीन यह चाहता है कि भारत उसकी शर्तों पर उससे रिश्ते कायम करे तो यह दादागीरी के अलावा और कुछ नहीं। आज के युग में यह संभव नहीं। यह तो कदापि स्वीकार नहीं किया जा सकता कि चीन अमैत्रीपूर्ण आचरण भी करे और यह भी चाहे कि भारत उसके साथ अपने व्यापार घाटे की अनदेखी भी करे।

आज जब पूरी दुनिया चीन पर अपनी आर्थिक निर्भरता कम करने के कदम उठा रही है तब भारत को ऐसा विशेष रूप से करना चाहिए। वास्तव में आत्मनिर्भर भारत अभियान को खास तौर पर इस पर केंद्रित करना चाहिए कि हम चीनी उत्पादों के मोहताज न रहें। भारत को अपनी तिब्बत, ताइवान और हांगकांग नीति पर भी नए सिरे से विचार करना चाहिए। वुहान और मामल्लापुरम में चाहे जो समझबूझ कायम हुई हो, इसके कोई संकेत नहीं कि चीन सीमा विवाद के स्थाई हल के लिए इच्छुक है।