अफगानिस्तान पर बुलाई गई बैठक में जिस तरह रूस और ईरान समेत सोवियत संघ का हिस्सा रहे पांच मध्य एशियाई देश शामिल हुए, उससे भारत दुनिया को यह संदेश देने में समर्थ रहा कि वह अपने पड़ोस में उभरी एक गंभीर समस्या के समाधान में दखल देने में सक्षम है। इस बैठक से पाकिस्तान और चीन को भी यह संदेश गया कि वे अफगानिस्तान को अपनी निजी जागीर की तरह इस्तेमाल नहीं कर सकते।

हालांकि, भारत ने इन दोनों देशों को भी बैठक में बुलाया था, लेकिन उन्होंने उससे कन्नी काटना ही बेहतर समझा। ऐसा करके उन्होंने एक तरह से अपने को अलग-थलग ही किया। इसमें कोई संदेह नहीं कि पाकिस्तान ने चीन के इशारे पर ही इस बैठक से बाहर रहने का फैसला किया। भले ही चीन ने इस बैठक से अलग रहने के लिए पाकिस्तान जैसा बहाना न बनाया हो, लेकिन यह स्पष्ट ही है कि वह यह नहीं चाहता कि भारत अफगानिस्तान की समस्याओं के समाधान में सहायक बने। यह अच्छा हुआ कि रूस और ईरान के साथ कजाखस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान एवं तुर्कमेनिस्तान ने चीन के साथ-साथ पाकिस्तान के इरादों पर भी पानी फेरने का काम किया।

अफगानिस्तान में तालिबान के काबिज होने के बाद से चीन और पाकिस्तान इस कोशिश में हैं कि वहां वही सब कुछ हो, जो वे चाहें, लेकिन ऐसा होने के आसार लगातार कम होते जा रहे हैं। चीन और पाकिस्तान की तमाम कोशिशों के बाद भी किसी देश ने तालिबान सरकार को मान्यता नहीं दी है। स्पष्ट है कि चीन और पाकिस्तान को छोड़कर शेष विश्व समुदाय तालिबान के इरादों को लेकर सशंकित है। विश्व समुदाय और विशेष रूप से अफगानिस्तान के अधिकांश पड़ोसी देशों की चिंता का सबसे बड़ा कारण यह है कि वहां आतंकवाद का नए सिरे से उभार हो सकता है और वह इस पूरे क्षेत्र के लिए खतरा बन सकता है।

चूंकि ऐसा होता हुआ दिख भी रहा है, इसलिए भारत की सक्रियता आवश्यक है। नि:संदेह भारत आतंकी सरगनाओं से भरी तालिबान सरकार का हमदर्द नहीं हो सकता, लेकिन वह आतंक और अस्थिरता से जूझ रहे अफगानिस्तान के आम लोगों की अनदेखी भी नहीं कर सकता। इसलिए और भी नहीं, क्योंकि उसने पिछले दो दशकों में उनके जीवन को बेहतर बनाने के लिए बहुत कुछ किया है। भारत अब भी ऐसा करना चाहता है, लेकिन पाकिस्तान इसमें बाधक बन रहा है। वह भारत के उस प्रस्ताव पर कुंडली मारे बैठा है, जिसके तहत भुखमरी के कगार पर खड़े अफगानिस्तान को गेहूं देने की पेशकश की गई है। इस प्रस्ताव पर पाकिस्तान की आनाकानी यही बताती है कि वह अफगानिस्तान का हितैषी नहीं।