बच्चे देश की अमूल्य संपत्ति हैं, जिनका संरक्षण व बेहतर पालन-पोषण भविष्य की नींव तैयार करने में मददगार साबित हो सकता है। लेकिन कई बार देखा गया है कि माता-पिता की गलत समझ, गरीबी या अन्य कारणों की वजह से बच्चे देश की शक्ति बनने की जगह कमजोरी का कारण बन रहे हैं।

बाल कल्याण के लिए जागरूकता अभियान व कई योजनाएं होने के बावजूद कई बच्चे स्कूल न जाकर बाल मजदूरी के लिए मजबूर होते है। कुछ लोग थोड़े से पैसों के लिए गैर-कानूनी तरीके से इन्हें बाल मजदूरी के कुएं में धकेल देते हैं। कुछ दिन पहले मंडी जिले में ऐसा मामला सामने आया था, जिसमें जीजा नाबालिग को घुमाने के बहाने बिहार से भगाकर लाया और मनाली में ढाबे पर मजदूरी के लिए 17 हजार रुपये में बेच दिया। बाद में उसने बच्चे को किसी दंपती को बेच दिया। गनीमत रही कि बच्चा सकुशल उनकी गिरफ्त से निकलकर सुरक्षित हाथों में पहुंचा। यह मामला तो सामने आ गया लेकिन ऐसे कई मामले हैं जो सामने नहीं आ पाते। प्रदेश में कई घरों, ढाबों व अन्य प्रतिष्ठानों में अब भी कई बच्चे मजदूरी करते देखने को मिलते हैं। बाल मजदूरी का सीधा असर बच्चों की मासूमियत, मानसिक, शारीरिक व सामाजिक विकास पर पड़ता है।

दुखद है कि कानूनन जुर्म होने के बावजूद बहुत से घरों की साजसज्जा और सफाई में बच्चों के हाथ झलकते हैं। जिन हाथों को कलम पकड़नी चाहिए, वे ढाबों में बर्तन साफ कर रहे हैं या दुकानों में मजदूर बनकर बेबसी की जिंदगी जी रहे हैं। उस आजादी को क्या कहें जहां दो वक्त की रोटी व तन ढकने के लिए कपड़े की जरूरत बच्चों से खुलकर रोने का अधिकार भी छीन ले। चिंता की बात यह है कि कानून बनाने के बावजूद अभी तक बाल मजदूरी पर रोक नहीं लग पाई है। इस मामले में सबसे पहले प्रशासन को चुस्त होने की जरूरत है। किसी भी बुराई को देखने के बाद अपनी आंखें बंद करने से वह खत्म नहीं हो जाती। समाज का भी फर्ज है कि वे बच्चों से उनकी मासूमियत न छीने। गैर सरकारी संस्थाएं भी कुछ कारगर करते हुए इसमें भूमिका निभा सकती हैं। बाल मजदूरी से बच्चों को बचाने की जिम्मेदारी देश के हर नागरिक की है। बचपन को बचाने के लिए इस सामाजिक बुराई को जड़ से उखाड़ने की जरूरत है।

[ स्थानीय संपादकीय: हिमाचल प्रदेश ]