उत्तराखंड में एक और बार नेतृत्व परिवर्तन से यही प्रकट हुआ कि भाजपा ने करीब चार महीने पहले जब त्रिवेंद्र सिंह रावत की जगह तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया था तो पर्याप्त सोच-विचार नहीं किया था। भले ही सांसद तीरथ सिंह रावत को इस आधार पर मुख्यमंत्री बनाया जाना बेहतर समझा गया हो कि उनके नाम पर सभी विधायक सहमत हो जाएंगे, लेकिन कम से कम यह तो सोचा ही जाना चाहिए था कि छह महीने के अंदर उन्हेंं विधायक बनना होगा। यदि इस बारे में कुछ सोचा नहीं गया तो इसे अदूरदर्शिता के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता और यदि सोचा गया था तो फिर उन्हेंं उपचुनाव क्यों नहीं लड़ाया गया? समझना कठिन है कि तीरथ सिंह रावत मुख्यमंत्री बनने के बाद सल्ट विधानसभा क्षेत्र में हुए उपचुनाव में क्यों नहीं खड़े हुए? क्या वह वहां से अपनी जीत की संभावनाएं नहीं देख रहे थे? सवाल यह भी है कि जब निर्वाचन आयोग ने रिक्त सीटों वाले गंगोत्री और हल्द्वानी विधानसभा क्षेत्र में उपचुनाव कराने से इन्कार ही नहीं किया तो फिर इस नतीजे पर कैसे पहुंच जाया गया कि यहां उपचुनावों की नौबत नहीं आने वाली? क्या यह बेहतर नहीं होता कि भाजपा संवैधानिक संकट का हवाला देकर निर्वाचन आयोग से गंगोत्री एवं हल्द्वानी में उपचुनाव कराने का आग्रह करती और इनमें से किसी एक क्षेत्र से तीरथ सिंह रावत चुनाव मैदान में उतरते? जब निर्वाचन आयोग इस आग्रह को ठुकरा देता तब फिर मजबूरी में वह किया जाता, जो गत दिवस किया गया।

अभी तो ऐसा लगता है कि तीरथ सिंह रावत ने चुनाव लड़ने के बजाय मैदान छोड़ देना बेहतर समझा। अब जब विधानसभा चुनाव में सात-आठ महीने का ही समय शेष रह गया है, तब उत्तराखंड में फिर से नेतृत्व परिवर्तन की नौबत आना यही बताता है कि भाजपा समझ नहीं पा रही कि उसे राजनीतिक चुनौती का सामना कैसे करना है? यह ठीक है कि भाजपा ने विधायक पुष्कर सिंह धामी को नया मुख्यमंत्री चुनकर उस गलती को सुधार लिया, जो उसने लगभग चार महीने पहले लोकसभा सदस्य तीरथ सिंह रावत को नेतृत्व सौंप करके थी, लेकिन नए मुख्यमंत्री के लिए उन चुनौतियों का सामना करना आसान नहीं होगा, जो चुनाव के मुहाने पर खड़ी किसी सरकार के समक्ष होती हैं। इसमें संदेह है कि नए मुख्यमंत्री इतने कम समय में जनता की अपेक्षाओं को पूरा कर सकेंगे। जो भी हो, भाजपा को पांच साल के अंदर मुख्यमंत्री के रूप में जिस तरह तीसरे चेहरे का चयन करना पड़ा, उससे इस राज्य में बार-बार मुख्यमंत्री बदले जाने की पुरानी बीमारी का नए सिरे से उभार होता हुआ ही दिखा।