पलायन का दंश झेल रहे उत्तराखंड में इसके कारणों और समाधान तलाशने की दिशा में ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग ने कवायद प्रारंभ कर दी है। इस कड़ी में आयोग ने सबसे पहले गांवों पर फोकस किया है। दावा किया गया है कि राज्य की सभी 7950 ग्राम पंचायतों में सर्वे पूरा करने के बाद और लोगों के बीच से दो लाख से ज्यादा बिंदुओं पर राय उभरकर सामने आई है। निश्चित रूप से यह पहल बेहतर कही जा सकती है, लेकिन असल चुनौती अब है। सर्वे में जो बातें उभरकर सामने आई हैं, उसके मद्देनजर समस्या के समाधान को ठोस एवं प्रभावी कार्ययोजना तैयार की जानी है। यही सबसे अहम कार्य है, जिसकी अब तक अनदेखी होती आई है।

पलायन को थामने के लिए यदि ठोस एवं प्रभावी पहल होती तो उत्तराखंड के गांवों में 2.85 लाख घरों में ताले नहीं लटकते। यही नहीं, 968 गांव भुतहा घोषित किए जा चुके हैं। यानी, इन गांवों में कोई नहीं रहता और वहां के घर खंडहर में तब्दील हो गए हैं। इसके अलावा बड़ी संख्या में ऐसे गांव हैं, जिनके बंद घरों के दरवाजे पूजा अथवा किसी खास मौके पर ही खुलते हैं। जाहिर है कि पलायन के चलते गांव खाली हुए हैं तो खेत-खलिहान बंजर में तब्दील। खुद राज्य सरकार भी मानती है कि राज्य गठन के बाद से गुजरे 17 सालों में अब तक 70 हजार हेक्टेयर कृषि भूमि बंजर में तब्दील हो चुकी है। हालांकि, गैर सरकारी आंकड़ों पर गौर करें तो बंजर कृषि भूमि का रकबा एक लाख हेक्टेयर से अधिक है।

असल में देखा जाए तो पलायन की बढ़ती रफ्तार के लिए नीति नियंताओं की अनदेखी ही जिम्मेदार है। खासकर, पर्वतीय क्षेत्रों के गांवों से पलायन से रफ्तार अधिक तेज हुई है तो इसके पीछे वहां मूलभूत सुविधाओं के विस्तार के साथ ही बेहतर शिक्षा व रोजगार के साधनों का अभाव जैसे मुख्य कारण गिनाए जा सकते हैं। बेहतर भविष्य और रोजगार की आस में सबसे अधिक पलायन हुआ है। हालांकि, अब मौजूदा सरकार ने लगातार गहराती इस समस्या की ओर फोकस किया है। इसी चिंता के फलस्वरूप पलायन आयोग अस्तित्व में आया है। ऐसे में अब आयोग की जिम्मेदारी है कि वह पलायन के कारणों की सही ढंग से पड़ताल कराकर इसके समाधान के लिए ठोस कार्ययोजना तैयार कर सरकार के समक्ष रखे। सरकार को भी चाहिए कि वह गांव और ग्रामीणों को केंद्र में रखकर आयोग की कार्ययोजना के आधार पर रोडमैप तैयार कर इसे धरातल पर उतारने को पूरी गंभीरता के साथ कदम बढ़ाए।

[ स्थानीय संपादकीय: उत्तराखंड ]