पंजाब के किसानों की बात सुनी जानी चाहिए, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि अभी इस दिशा में सरकार और प्रशासन की ओर से खास गंभीरता नहीं दिखाई जा रही है। कदाचित यही कारण है कि प्रदेश के किसान लगातार मुखर होते जा रहे हैं। अब किसान केंद्र व प्रदेश सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति अपनाते हुए दिख रहे हैं। यही कारण है कि गत दिवस किसान संगठनों ने बड़े शहरों में दूध व सब्जी की सप्लाई ठप करने का फैसला कर लिया। इसके अतिरिक्त संगरूर के चीमा में गत दिवस ही करीब तीन हजार किसान अनिश्चितकालीन धरने पर बैठ गए। ये किसान भी अपनी बात न सुने जाने से नाराज हैं और मांगों को लेकर प्रदर्शन करने दिल्ली जा रहे थे, लेकिन इन्हें रास्ते में ही रोक लिया गया। एक कृषि प्रधान प्रदेश के लिए यह कतई उचित स्थिति नहीं है कि यहां के किसान व्यथित हों। हालांकि हालात ऐसे ही दिखाई दे रहे हैं। स्थिति किस कदर भयावह है, इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि प्रदेश में आए दिन किसान आत्महत्या कर रहे हैं। गत दिवस भी फिरोजपुर के गुरुहरसहाय में एक किसान ने जहर निगल कर जान दे दी, जबकि कर्ज में डूबे संगरूर के किसान ने भी आत्महत्या का मार्ग चुना।

आत्महत्या की लंबी फेहरिस्त के बावजूद किसानों की बात को गंभीरता से न सुनना यही दर्शाता है कि सरकारें कृषि को लेकर गंभीर होने का दिखावा मात्र कर रही हैं। धरातल पर यदि स्थिति में सुधार होता तो ऐसी स्थिति नहीं आती कि आज किसान या तो सड़क पर धरना-प्रदर्शन कर रहा है अथवा अपनी जान देने पर विवश है। यह स्थिति घातक है। केंद्र व प्रदेश सरकारों को चाहिए कि वे किसानों की बात गंभीरता से सुनें और उनकी स्थिति सुधारने के लिए तत्काल उचित कदम उठाएं। किसानों के लिए केंद्र व राज्य स्तर पर तमाम योजनाएं बनाई गई हैं, आवश्यकता इस बात की भी है कि इन योजनाओं को धरातल पर भी गंभीरता के साथ लागू किया जाए, तभी हालात में सुधार हो सकता है।

[ स्थानीय संपादकीय: पंजाब ]