आम जनता और विशेषकर निर्धन तबके के लोगों को आर्थिक रूप से मुख्यधारा में लाने के लिए प्रधानमंत्री जन धन योजना के तहत खुले करीब 30 करोड़ बैंक खातों में से अब केवल 20 फीसद का ही जीरो बैलेंस खाते के दायरे में रह जाना इसलिए एक बड़ी कामयाबी है, क्योंकि पहले इनकी संख्या 77 फीसद थी। इसका मतलब है कि अब करोड़ों लोगों के बैैंक खातों में कुछ न कुछ राशि है या फिर उन्हें सब्सिडी मिलने लगी है। जब मोदी सरकार ने जीरो बैलेंस वाले जन धन खातों की शुरुआत की थी तो तमाम लोगों ने यह कहकर इस योजना का मजाक उड़ाया था कि आखिर बिना पैसे वाले बैैंक खाते खुलवाने से क्या हासिल होगा? यह संभव है कि सरकार के आलोचक अभी भी यह सवाल उठाएं कि आखिर जो खाते जीरे बैलेंस नहीं रह गए हैैं उनमें धनराशि कितनी होगी? इस सवाल के बावजूद यह साधारण बात नहीं कि तीन साल के अंदर करोड़ों लोग बैैंकिंग सिस्टम से जुड़ गए। जन धन खाते संख्या के लिहाज से एक रिकार्ड हैैं। हैरत नहीं कि इस योजना को वित्तीय समावेशन के लिहाज से दुनिया के सबसे बड़े अभियान के तौर पर देखा जा रहा है। पता नहीं पहले की सरकारों ने इस पर विचार क्यों नहीं किया कि वित्तीय समावेशन का अभाव एक प्रकार से लोक कल्याण के लक्ष्य की अनदेखी है? जन धन योजना से करोड़ों लोग केवल बैैंक खातों से ही लैस नहीं हुए हैैं, बल्कि वे तमाम सरकारी योजनाओं के तहत मिलने वाली सब्सिडी के पात्र भी बन गए है। आम लोगों को बैैंकिंग व्यवस्था से जोड़ने का एक लक्ष्य उन्हें पेंशन एवं दुर्घटना बीमा संबंधी योजनाओं से भी जोड़ना था। बेहतर होगा कि पेंशन और दुर्घटना बीमा योजना के आंकड़े भी सामने लाए जाएं ताकि वस्तुस्थिति का पता चल सके और जो लोग अभी भी बैैंकिंग व्यवस्था से बाहर हैैं उन्हें इस व्यवस्था का हिस्सा बनने के लिए प्रेरित किया जा सके।
सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कोई भी व्यक्ति बैैंकिंग व्यवस्था से बाहर न रहे। यह सुनिश्चित करने के बाद ही अंतिम छोर पर खड़े लोगों अर्थात गरीब से गरीब व्यक्ति के आर्थिक उत्थान के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है। हर किसी के बैैंक खाते से लैस होने का एक परोक्ष लाभ यह है कि व्यक्ति बचत के लिए प्रोत्साहित होता है और अपने आर्थिक भविष्य की चिंता करता है। इसी तरह वह सूदखोरों के चंगुल में फंसने से बचता भी है। वित्तीय समावेशन की बुनियाद को मजबूत करने के लिए यह आवश्यक ही है कि डिजिटल लेन-देन को बढ़ावा मिलने का सिलसिला कायम रहे। नोटबंदी के बाद डिजिटल लेन-देन में जो वृद्धि देखी गई थी उसे बरकरार रखने के लिए अभी काफी कुछ करने की जरूरत है। जब तक डिजिटल लेन-देन आम लोगों की आदत का हिस्सा नहीं बनता तब तक स्थाई बदलाव के प्रति सुनिश्चित नहीं हुआ जा सकता। यह ठीक है कि सरकार वित्तीय समावेशन की बुनियाद डिजिटल समावेशन में भी देख रही है, लेकिन उसका मकसद तब पूरा होगा जब डिजिटल तकनीक सबको सुलभ होगी और साथ ही ग्रामीण इलाकों में बैैंकिंग व्यवस्था और सघन होगी।

[ मुख्य संपादकीय ]