महाराष्ट्र और हरियाणा में नई सरकारों का समुचित तरीके से गठन होने के पहले ही झारखंड में विधानसभा चुनाव की तिथियां घोषित होने से चुनावों के सिलसिले से छुटकारे की जरूरत एक बार फिर महसूस हो रही है। आखिर महाराष्ट्र और हरियाणा के साथ ही झारखंड विधानसभा के चुनाव कराने की पहल क्यों नहीं हुई? इस सवाल का चाहे जो जवाब हो, इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि झारखंड विधानसभा चुनाव खत्म होते ही दिल्ली विधानसभा के चुनाव करीब आ जाएंगे। दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद बिहार विधानसभा चुनाव निकट आ जाएंगे। इस तरह यह सिलसिला कभी खत्म नहीं होने वाला। बार-बार होने वाले चुनाव केवल सरकारी खजाने पर बोझ ही नहीं बनते, वे शासन-प्रशासन के आवेग को भी बाधित करते हैं। इसी के साथ वे राजनीतिक दलों की प्राथमिकताओं को भी प्रभावित करते हैं। हालांकि कुछ समय पहले लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने पर बहस हुई थी, लेकिन वह किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी। इसका कारण यही रहा कि राजनीतिक दलों ने एक साथ चुनाव पर अपेक्षित गंभीरता का परिचय नहीं दिया।

इसमें दोराय नहीं कि लोकसभा के साथ विधानसभाओं के चुनाव कराने में कुछ समस्याएं हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि उनका समाधान नहीं हो सकता। यदि राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो ऐसा आसानी से किया जा सकता है। एक साथ चुनाव के विरोध में जो तर्क दिए जाते हैं उनका महत्व एक सीमा तक ही है, क्योंकि आजादी के बाद एक अर्से तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही होते रहे। आखिर जो काम पहले होता रहा वह फिर क्यों नहीं हो सकता?

एक साथ चुनाव को लेकर एक बड़ी दलील यह है कि ऐसा होने से क्षेत्रीय दलों को घाटा हो सकता है। इस दलील में कुछ वजन तो है, लेकिन इस कथित घाटे से बचने के लिए लोकसभा चुनाव के दो या तीन साल बाद सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जा सकते हैं। इस तरह पांच साल की अवधि में देश को केवल दो बार ही चुनावों का सामना करना होगा-पहले लोकसभा चुनाव का और फिर विधानसभाओं के चुनाव का। बेहतर हो कि राजनीतिक दल इस फार्मूले पर सहमत हों। चूंकि झारखंड नक्सली हिंसा से ग्रस्त है इसलिए यहां की 81 विधानसभा सीटों के लिए पांच चरणों में मतदान होगा।

क्या छत्तीसगढ़ के मुकाबले झारखंड में नक्सलियों की चुनौती अधिक गंभीर है? यह सवाल इसलिए, क्योंकि करीब एक साल पहले छत्तीसगढ़ में 72 सीटों के लिए दो चरणों में ही मतदान हुआ था। स्पष्ट है कि इस पर भी गंभीरता से विचार होना चाहिए कि आखिर नक्सली संगठन कब तक चुनाव प्रक्रिया के लिए सिरदर्द बने रहेंगे?