महाराष्ट्र में यकायक बनी देवेंद्र फड़णवीस सरकार को बहुमत परीक्षण के पहले ही जिस तरह इस्तीफा देने को विवश होना पड़ा उससे भाजपा ने सहानुभूति हासिल करने का मौका भी खो दिया। ऐसा लगता है कि उसने सोच-विचार किए बिना ही अजीत पवार पर भरोसा कर लिया। कहीं वह सत्ता के लालच में अजीत पवार के झांसे में तो नहीं जा फंसी? हैरत नहीं कि अजीत पवार ने शरद पवार से छिटकने का दिखावा इसीलिए किया हो ताकि भाजपा को न सत्ता मिले और न ही सहानुभूति। जो भी हो, भाजपा को सरकार गठन के मामले में उतावलापन दिखाने से बचना चाहिए था। आखिर उसने कर्नाटक के अनुभव से कोई सबक क्यों नहीं सीखा? राजनीतिक नफा-नुकसान की परवाह न करते हुए भाजपा ने जिस तरह सरकार बनाई और फिर गंवाई उससे उसके विरोधी दलों को खुद को सही साबित करने की आड़ ही मिली। भाजपा को यह आभास हो तो बेहतर कि तीन दिन वाली फड़णवीस सरकार से वह उपहास का ही पात्र बनी है। अब शिवसेना अपने धुर विरोधी दलों कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से मिलकर कहीं अधिक बाजे-गाजे के साथ सरकार बनाएगी।

शिवसेना अपनी और साथ ही लोकतंत्र की जीत के कितने भी दावे करे, इस यथार्थ को कोई नहीं बदल सकता कि महाराष्ट्र की भावी सरकार मौकापरस्ती की राजनीति का शर्मनाक उदाहरण होगी। महाराष्ट्र का जनादेश इसके लिए नहीं था कि शिवसेना विरोधी दलों के साथ मिलकर सरकार बनाए। अब ऐसा ही होने जा रहा है। यह जनादेश के साथ लोकतांत्रिक मूल्यों-मर्यादाओं का वैसा ही निरादर है जैसा निरादर फड़णवीस सरकार बनने से हुआ था। चूंकि लोकतांत्रिक मूल्यों के अनादर के साथ जनादेश की मनमानी व्याख्या करके पहले भी सरकारें बनती रही हैं इसलिए यह अनिवार्य है कि छल-छद्म से सरकार बनाने पर रोक लगाने के उपाय किए जाएं। निर्णायक जनादेश के अभाव में या तो फिर से चुनाव कराए जाएं या फिर ऐसे नियम बनाए जाएं जिससे सरकार बनाने वाले जनादेश को ठेंगा न दिखा सकें।

कम से कम चुनाव पूर्व गठबंधन तोड़ने वालों को तो फिर से जनादेश लेने को बाध्य किया ही जाना चाहिए। कल तक यह माना जाता था कि चुनाव पूर्व गठबंधन मौकापरस्ती की राजनीति पर लगाम लगाने का काम करते हैं, लेकिन महाराष्ट्र के उदाहरण से यही स्पष्ट है कि अब वे मौकापरस्ती की राजनीति को बल भी दे सकते हैं। यदि चुनाव पूर्व गठबंधन तोड़ने वाले दल शिवसेना की तरह सत्ता हासिल करने लगेंगे तो इससे अनैतिकता की राजनीति और अधिक फले-फूलेगी ही। अगर राजनीतिक दलों को नैतिकता की राजनीति की तनिक भी परवाह है तो उन्हें अनैतिक राजनीति के छिद्रों को बंद करने पर विचार करना चाहिए।