जम्मू-कश्मीर में पीडीपी-भाजपा सरकार जिस तरह चल रही थी उसके कारण एक अर्से से दोनों में अलगाव के आसार बढ़ते दिख रहे थे। बावजूद इसके भाजपा की ओर से पीडीपी से समर्थन वापस लेने का फैसला इसलिए अप्रत्याशित है, क्योंकि यह संघर्ष विराम की समाप्ति के तत्काल बाद लिया गया। इस फैसले से यही साबित होता है कि संघर्ष विराम के नतीजे अच्छे नहीं रहे। इसमें दोराय नहीं कि आतंकियों और उनके खुले-छिपे समर्थकों ने संघर्ष विराम का जवाब हिंसक तरीके से दिया, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि भाजपा ने केवल इसी कारण गठबंधन तोड़ने का फैसला किया। यह गठबंधन इसलिए भी नहीं टूटा, क्योंकि यह बेमेल था, बल्कि इसलिए टूटा, क्योंकि पीडीपी के नेतृत्व वाली सरकार न तो कश्मीर की उम्मीदों पर खरा उतर पा रही थी और न ही जम्मू के। लद्दाख तो प्राथमिकता में दिखा ही नहीं। इस गठबंधन सरकार का एक बड़ा मकसद घाटी के हालात सामान्य करना और साथ ही जम्मू और कश्मीर के बीच की खाई को कम करना था। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो सका। उलटे जम्मू और कश्मीर के बीच की खाई बढ़ती दिखी। नि:संदेह इसकी एक बड़ी वजह मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की रीति-नीति रही। इसी रीति-नीति के चलते गठबंधन के उस एजेंडे को ढंग से आगे नहीं बढ़ाया जा सका जिसे गहन मंथन के बाद तैयार किया गया था।

कहना कठिन है कि यदि मुफ्ती मुहम्मद सईद होते तो साझा सरकार का भविष्य क्या होता, लेकिन इसमें दोराय नहीं कि महबूबा मुफ्ती अनुकूल परिणाम न मिलने के बावजूद इस पर कुछ ज्यादा ही जोर देने की गलती करती रहीं कि पत्थरबाजों के प्रति नरमी बरती जाए और अलगाववादियों एवं पाकिस्तान परस्त तत्वों से बातचीत की पहल की जाए। एक हद तक ऐसा किया भी गया, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही रहा। एक ओर कश्मीर आतंक एवं अराजकता के खुले समर्थकों के साथ-साथ पाकिस्तान की शातिर दखलंदाजी से त्रस्त बना रहा और दूसरी ओर जम्मू के हितों की अनदेखी भी होती रही। गठबंधन को बनाए रखने के लिए भाजपा को कदम-कदम पर समझौते ही नहीं करने पड़े, बल्कि अपने घोषित एजेंडे से पीछे भी हटना पड़ा। गठबंधन हित में उसने धारा 370 हटाने की अपनी मुहिम को तो स्थगित किया ही, कश्मीरी पंडितों की वापसी पर ज्यादा जोर भी नहीं दिया। इसके बदले उसे कुछ हाथ लगता नहीं दिख रहा था और समय बीतता जा रहा था। ऐसे में इस पर विचार करना ही था कि आखिर देश को और खुद उसे इस सरकार से हासिल क्या हो रहा है? चूंकि जम्मू संभाग के लोगों में यह भाव गहराता जा रहा था कि उनकी अनदेखी हो रही है इसलिए भाजपा के लिए इस गठबंधन को बनाए रखना मुश्किल हो गया था। यदि भाजपा भिन्न विचाराधारा वाली पीडीपी से अलग होने का फैसला करने में और देर करती तो शायद वह जम्मू में अपनी राजनीतिक पूंजी भी गंवा बैठती। गठबंधन सरकार का सफर असमय खत्म होने के बाद केंद्र सरकार को जम्मू-कश्मीर में मन मुताबिक फैसले लेने में आसानी अवश्य होगी, लेकिन यह तय है कि सामान्य तौर-तरीकों से बात नहीं बनने वाली।