पलायन का दंश ङोल रहे उत्तराखंड में बर्ड वाचिंग, रोजगार सृजन और राजस्व का अहम जरिया बन सकता है। असल में देशभर में पाई जाने वाली परिंदों की लगभग 1300 प्रजातियों में से 710 उत्तराखंड में चिह्नित की गई हैं। यानी पक्षी प्रेमियों के लिए यहां की पक्षी विविधता किसी अंतर्राष्ट्रीय हब से कम नहीं है। जरूरत है तो बस इस दिशा में गंभीरता से कदम बढ़ाने के साथ ही देश-दुनिया के बर्डर यानी बर्ड वाचिंग के शौकीनों का ध्यान खींचने की। बता दें कि विकसित देशों में बर्ड वाचिंग का अच्छा खासा टर्नओवर है। अमेरिका में परिंदों की नौ सौ प्रजातियां पाई जाती हैं और वहां बर्ड वाचिंग से सात लाख से अधिक लोगों को रोजगार मिला है। इससे प्रतिवर्ष राजस्व प्राप्त होता है करीब 10 बिलियन डॉलर। इसी प्रकार इंग्लैंड, यूरोपीय देशों में बर्ड वाचिंग का अच्छा-खासा बिजनेस है। इस लिहाज से देखें तो उत्तराखंड में भी बर्ड वाचिंग की अच्छी-खासी संभावनाएं हैं। बावजूद इसके पक्षी अवलोकन से रोजगार सृजन और राजस्व की दिशा में वह पहल नहीं हो पाई है, जिसकी दरकार है। वह भी तब जबकि 71 फीसद वन भूभाग इस राज्य में छह राष्ट्रीय पार्क, सात अभयारण्य और चार कंजर्वेशन रिजर्व हैं। इनके साथ ही अन्य क्षेत्रों में भी परिंदों का खूबसूरत संसार बसता है, जो हर किसी का मन मोह लेता है।

बर्ड वाचिंग यदि संरक्षण के साथ रोजगार का जरिया भी बन जाए तो फिर कहने ही क्या। हालांकि, राज्य का वन महकमा इस दिशा में धीरे-धीरे कदम बढ़ा रहा है। विभाग के इको टूरिज्म सेक्शन के माध्यम से वर्ष 2014 से शुरू की गई बर्ड फेस्टिवल की पहल इसी कड़ी का हिस्सा है। इस साल देहरादून के थानो और हरिद्वार जिले के ङिालमिल क्षेत्र में शुक्रवार से यह फेस्टिवल होना है। ऐसी पहल के पीछे मंशा पक्षी संरक्षण के लिए जागरूकता बढ़ाने के साथ ही नए डेस्टिनेशन का चिह्नीकरण, वन क्षेत्रों से लगे इलाकों में ग्रामीणों बर्ड वाचर गाइड प्रशिक्षण, होम स्टे समेत अन्य कदम उठाने की है। जाहिर है कि इससे रोजगार के अवसर भी सृजित होंगे। इस तरह की पहल को वृहद आकार देने के लिए राज्य सरकार को कार्ययोजना तैयार कर इसे धरातल पर उतारना होगा। इसके लिए न सिर्फ वन विभाग विभाग बल्कि पर्यटन समेत अन्य विभागों का भी सहयोग लेना होगा। यदि इस दिशा में प्रभावी पहल हुई तो विश्व के विभिन्न देशों की तरह उत्तराखंड को नई पहचान मिलने के साथ ही यह रोजगार का भी अहम जरिया बन सकेगा।

[ स्थानीय संपादकीय: उत्तराखंड ]