विधानमंडल का लघु शीतकालीन सत्र सिर्फ अपरिहार्य विधायी कार्य की औपचारिकता पूरी करके स्थगित हो गया क्योंकि विपक्ष ने लगभग रोज हंगामा करके सदन की कार्यवाही न चलने देने का अपना ‘धर्म’ नहीं छोड़ा। विपक्ष का यह रवैया समझ से परे है। यदि विपक्ष जनहित के सवालों पर आक्रामकता दिखाकर सरकार को घेरना चाहता था तो इसके लिए कई ज्वलंत मुद्दे मौजूद थे। बहरहाल, विपक्ष ने ऐसा कोई मुद्दा सदन में नहीं उठाया। इसके विपरीत सारा हंगामा लालू परिवार को लेकर होता रहा। सत्र के दौरान राजद खेमा, खासकर लालू परिवार के सदस्यों ने सदन के भीतर और बाहर जिस शैली और शब्दों का सहारा लिया, उसकी चौतरफा आलोचना हुई।

इसके बावजूद राजद अपनी रणनीति पर कायम रहा और विधानमंडल के दोनों सदनों की कार्यवाही अधिकतर समय हंगामे की भेंट चढ़ गई। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही माना जाएगा कि मजबूत संख्याबल और प्रभावशाली नेतृत्व के बावजूद विपक्ष राज्य के विकास में अपने लिए कोई सकारात्मक भूमिका तय करने में विफल साबित हो रहा है। लालू परिवार की कठिनाइयां अपनी जगह हैं। इनकी ओर सरकार और समाज का ध्यान आकृष्ट कराने को कई प्लेटफॉर्म उपलब्ध हैं। ऐसे रवैये से न सिर्फ विधायी सदनों की गरिमा गिरती है बल्कि जनहित भी प्रभावित होता है। विधानसभा अध्यक्ष विजय कुमार चौधरी की सराहना की जानी चाहिए जिनके प्रयास से सदन की कार्यवाही कुछ देर चल सकी अन्यथा विपक्ष तो इसे कतई चलने न देने पर आमादा था। प्रदेश में पूर्ण शराबबंदी लागू किए जाने के बाद दहेज कुप्रथा और बाल विवाह के खिलाफ जोरदार अभियान चलाया जा रहा है। इन अभियानों की चर्चा पूरे देश में हो रही है, पर राज्य विधानमंडल में इस पर कोई चर्चा नहीं हुई।

इसी प्रकार धान खरीद के मामले में किसानों की कठिनाई पर भी विपक्ष ने कोई चर्चा नहीं की। ऐसे ही जनहित के बाकी सवाल भी उपेक्षित रह गए। राजद नेतृत्व को इन बातों पर विचार करना चाहिए। किसी भी दल को यह नहीं भूलना चाहिए कि तय अवधि के बाद उसे फिर जनता की अदालत में जाना पड़ेगा। जनता पांच साल चुपचाप सब कुछ ङोलती है, पर वक्त आने पर सारा हिसाब चुकता कर लेती है। विपक्ष ने जिस तरह हंगामा करके सदन की कार्यवाही बाधित रखी, उसे स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा का हिस्सा नहीं माना जा सकता। विधायी सदनों में जनहित के बजाय व्यक्तिगत मुद्दे उठाना अनुचित एवं अनैतिक है।

[स्थानीय संपादकीय: बिहार]