पश्चिम बंगाल के दौरे पर गए भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के काफिले पर हमला राजनीतिक हिंसा और असहिष्णुता की पराकाष्ठा ही है। शर्मनाक यह है कि यह हमला पुलिस की उपस्थिति में हुआ। आखिर भाजपा इस नतीजे पर क्यों न पहुंचे कि ऐसे हमले सत्तारूढ़ राजनीतिक दल की शह पर हो रहे हैं? यह सवाल इसलिए, क्योंकि नड्डा के काफिले में शामिल सभी भाजपा नेताओं की गाड़ियों पर पथराव किया गया और इसे रोका नहीं जा सका।

इसका मतलब है कि भाजपा अध्यक्ष के कार्यक्रम की पूर्व सूचना होने के बावजूद सुरक्षा के प्रबंध करने में भी ढिलाई का परिचय दिया गया। यह तो गनीमत रही कि जेपी नड्डा बुलेट प्रूफ वाहन से यात्रा कर रहे थे, अन्यथा उनके लिए वैसा ही जोखिम पैदा हो जाता जैसा भाजपा के अन्य नेताओं के लिए हुआ।

बंगाल में राजनीतिक हिंसा नई नहीं है, लेकिन यह खतरनाक है कि परिवर्तन लाने की बात करने वाली ममता सरकार में वह उसी स्तर को छूती हुई दिख रही है जैसी वाम दलों के शासन के समय दिखती थी। स्पष्ट है कि बंगाल का राजनीतिक रूप से पतन हो रहा है।

यह देखना दयनीय है कि जब राजनीतिक हिंसा के लिए कुख्यात अन्य राज्य उससे मुक्त हो रहे हैं तब बंगाल और केरल में वह बेलगाम होती दिख रही है। इन दोनों राज्यों की राजनीतिक हिंसा का चिंताजनक पक्ष यह है कि उसे लेकर अन्य राजनीतिक दलों और सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों के साथ ही मीडिया का एक हिस्सा भी उदासीनता का परिचय देता है।

यह उदासीनता इसीलिए दिखाई जा रही है, क्योंकि राजनीतिक हिंसा के निशाने पर भाजपा है। यह अनदेखी राजनीतिक हिंसा को दिया जाने वाला मौन समर्थन तो है ही, वैचारिक असहिष्णुता का परिचायक भी है। यदि विपक्षी दल भाजपा का राजनीतिक रूप से मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं तो इसका यह मतलब नहीं कि वे उसके खिलाफ बंगाल और केरल में की जाने वाली राजनीतिक हिंसा पर मौन साधे रहें। इस मौन के नतीजे अच्छे नहीं होंगे। किसी भी दल के प्रति दिखाई जाने वाली राजनीतिक हिंसा बिना किसी किंतु-परंतु अस्वीकार्य होनी चाहिए।

यह देखना दुखद है कि भाजपा जिस राजनीतिक हिंसा से दो चार है उसकी अन्य राजनीतिक दल निंदा करना तो दूर रहा, उसका संज्ञान भी नहीं लेते। समस्या केवल यही नही है कि विपक्षी दल केरल और बंगाल की राजनीतिक हिंसा पर चुप्पी साधे रहते हैं, बल्कि यह भी है कि वे केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के शासन करने के अधिकार को भी अलोकतांत्रिक तरीके से चुनौती देने में भी लगे हुए हैं। नए कृषि कानूनों की वापसी पर अड़े विपक्षी दल जैसा रवैया प्रदर्शित कर रहे हैं उससे यही प्रतीत होता है कि उन्हें अपने राजनीतिक स्वार्थो की अधिक परवाह है।