अंध विरोध और दुष्प्रचार कैसे हालात पैदा करता है, इसका ही एक उदाहरण है यूरोपीय संसद में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रस्ताव आना। यह प्रस्ताव उस माहौल का दुष्परिणाम है जो भारतीय मीडिया के एक हिस्से के साथ ही विपक्षी राजनीतिक दलों और वामपंथी रुझान वाले कथित बुद्धिजीवियों की ओर से बनाया गया है। वास्तव में इसी दूषित माहौल के चलते भारत विरोधी तत्वों को यूरोपीय संसद के सदस्यों को उकसाने और उनके जरिये नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रस्ताव लाने का अवसर मिला है। हालांकि यूरोपीय संसद में लाए गए किसी प्रस्ताव का कोई मूल्य-महत्व नहीं है और इसे यूरोपीय समुदाय ने भी स्पष्ट कर दिया है, फिर भी देश में कुछ लोग यह रेखांकित करने में लगे हुए हैं जैसे भारत के हितों के खिलाफ कोई बड़ी अंतरराष्ट्रीय पहल होने जा रही है।

कुछ तो ऐसे भी हैं जो यूरोपीय समुदाय और यूरोपीय संसद में भेद करने की भी जहमत नहीं उठा रहे हैं। जाहिर है कि ऐसा इसीलिए किया जा रहा है, क्योंकि इससे ही उनके संकीर्ण राजनीतिक हित सध रहे हैं। किसी अन्य देश के आंतरिक मामलों में यूरोपीय संसद की ओर से पारित प्रस्ताव एक ज्ञापन से अधिक महत्व नहीं रखते। वहां से पारित प्रस्ताव जिस यूरोपीय समुदाय को विचार के लिए दिए जाते हैं उसके प्रमुख देश पहले ही यह कह चुके हैं कि नागरिकता कानून भारत का आंतरिक मामला है।

यह देखना दयनीय भी है और शर्मनाक भी कि जिस कांग्रेस पार्टी के शासन वाले राज्य नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रस्ताव पारित कर संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक परंपराओं को लांछित करने में लए हुए हैं उसके नेता यह कह कर भ्रम फैलाने में जुटे हैं कि यूरोपीय संसद की पहल मोदी सरकार की विदेश नीति की विफलता है। शायद कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के ऐसे ही आचरण को देखकर प्रधानमंत्री ने यह कहा कि वे देश की छवि से खिलवाड़ करने में लगे हुए हैं। दुर्भाग्य से वे केवल यही नहीं कर रहे हैं, बल्कि राष्ट्रीय महत्व के जरूरी कार्यो में बाधा भी डाल रहे हैं।

राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर यानी एनपीआर का विरोध कुल मिलाकर एक जनविरोधी हरकत है। आखिर ऐसे किसी रजिस्टर से ही तो पता चलता है कि निर्धन-वंचित लोगों के लिए किस तरह की योजनाएं बनाने की जरूरत है। एनपीआर तो एक तरह से जनकल्याण की योजना है। इससे बुरी बात और कोई नहीं हो सकती कि जिस कांग्रेस ने एनपीआर की शुरुआत की वही उसके खिलाफ न केवल खड़ी हो गई है, बल्कि आम लोगों को गुमराह भी कर रही है। आखिर इसे जनविरोधी राजनीति की संज्ञा न दी जाए तो और क्या कहा जाए?