अपना पदभार ग्रहण करते हुए कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने अपनी यह पुरानी प्रतिबद्धता एक बार फिर दोहराई कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में उनके मंत्रालय की भूमिका सीमित नहीं रहेगी, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि फिलहाल ऐसी ही स्थिति है। न्यायाधीशों की नियुक्तियों के मामले में सरकार कोलेजियम की सिफारिशों पर मुहर लगाने तक ही सीमित है। यह अभी हाल में देखने को भी मिला। उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कोलेजियम की ओर से भेजे गए दो नामों पर सरकार ने आपत्ति जताई तो उसे खारिज कर यही दो नाम फिर से आगे बढ़ा दिए गए। चूंकि सरकार के सामने और कोई उपाय नहीं था इसलिए उसने वही किया जो कोलेजियम की ओर से चाहा जा रहा था। एक तरह से कानून मंत्रालय ने पोस्ट ऑफिस जैसा ही काम किया। यह स्थिति बदली जानी चाहिए, क्योंकि दुनिया के किसी भी श्रेष्ठ लोकतांत्रिक देश में न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्तियां नहीं करते।

बेहतर हो कि सुप्रीम कोर्ट भी यह समझे कि न्यायाधीशों की नियुक्तियों के मामले में कोलेजियम व्यवस्था लोकतांत्रिक मूल्यों और मान्यताओं के अनुकूल नहीं है। नि:संदेह न्यायपालिका को स्वतंत्र एवं स्वायत्त होना चाहिए, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वह न्यायाधीशों की नियुक्तियों के मामले में खुद को जवाबदेही और पारदर्शिता से परे रखे। इसका औचित्य इसलिए भी नहीं बनता, क्योंकि खुद सर्वोच्च न्यायालय यह मान चुका है कि कोलेजियम व्यवस्था दोष रहित नहीं है। क्या कोई बताएगा कि आखिर इस व्यवस्था के दोष कब दूर होंगे?

समस्या केवल यही नहीं है कि न्यायाधीशों की नियुक्तियां उस कोलेजियम व्यवस्था के तहत हो रही हैं जिसकी विसंगतियां सामने आ चुकी हैं। समस्या यह भी है कि न्यायिक क्षेत्र की अन्य अनेक विसंगतियां भी दूर होने का नाम नहीं ले रही हैं। न्याय हासिल होने के बजाय तारीख पर तारीख का सिलसिला कायम रहना एक हकीकत है। यह हकीकत निचली अदालतों से लेकर उच्चतम न्यायालय तक है। आखिर न्याय के लिए प्रतीक्षारत करोड़ों लोगों की चिंता कौन कर रहा है? यह ठीक नहीं कि चिंता के नाम पर कार्यपालिका और न्यायपालिका एक-दूसरे को नसीहत देती दिखें।

आखिर दोनों पक्ष मिलकर न्यायिक क्षेत्र की समस्याओं को दूर करने के लिए कोई ठोस रूपरेखा तैयार करने के लिए आगे क्यों नहीं आते? यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि कानून मंत्री के रूप में रविशंकर प्रसाद इस बार न्यायिक सुधारों को गति देने के मामले किन्हीं ठोस उपायों पर अमल करते हुए दिखें। चूंकि उनके पास कानून मंत्रालय के साथ-साथ सूचना-प्रौद्योगिकी और दूरसंचार मंत्रालय भी है इसलिए उन्हें यह अवश्य देखना चाहिए कि आधुनिक तकनीक और विशेष रूप से आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल करके न्यायिक तंत्र के उस मकड़जाल को कैसे काटा जाए जो करोड़ों लोगों की परेशानी का कारण है और जिसके चलते हमारी न्याय प्रणाली अपनी सुस्ती के लिए बदनाम है।

एक वकील होने के नाते कानून मंत्री इससे अनभिज्ञ नहीं हो सकते कि मुकदमों को लंबित रखने के तौर-तरीके किस तरह न्याय प्रणाली का अलिखित हिस्सा बन गए हैं। यह ठीक नहीं कि जब हर क्षेत्र में सुधारों पर जोर है तब न्यायिक क्षेत्र में सुधार बहस तक सीमित हैं।

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