एक ऐसे समय जब सेना की चुनौतियां बढ़ती जा रही हैैं तब उसकी ओर से इस आशय की चिट्ठी सामने आना चिंताजनक है कि उसे खराब किस्म के गोला-बारूद की आपूर्ति हो रही है। सेना को घटिया युद्धक सामग्री की आपूर्ति किया जाना बेहद गंभीर मामला है। केवल इसकी तह तक ही नहीं जाना चाहिए कि ऐसा क्यों हो रहा है, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि सेना की अन्य जरूरतें भी समय पर पूरी हों। चूंकि घटिया गोला-बारूद की शिकायत करने के लिए सेना को चिट्ठी लिखनी पड़ी इसलिए यह सहज ही समझा जा सकता है कि उसकी समस्या सच में संकट पैदा करने वाली है। इसका अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि उक्त चिट्ठी में यह स्पष्ट किया गया कि खराब गोला-बारूद के कारण सैनिकों को क्षति उठानी पड़ रही है।

सेना की मानें तो युद्ध क्षेत्र में हादसों की संख्या बढ़ी है और इसका कारण गुणवत्ता से हीन गोला-बारूद है। इन हादसों में जान गंवाने और घायल होने वाले सैनिकों की संख्या बढ़ने के साथ ही रक्षा उपकरण भी क्षतिग्रस्त हो रहे हैैं। साफ है कि घटिया युद्धक सामग्री सेना को दोहरा नुकसान पहुंचा रही है। ध्यान रहे कि इस सामग्री का निर्माण सरकारी आर्डिनेंस फैक्ट्रियां कर रही हैैं। अगर सरकार के स्वामित्व वाली फैक्ट्रियां अपना काम सही तरह नहीं कर रही हैैं या फिर वहां तैयार उत्पाद गुणवत्ता के मानकों पर खरे नहीं उतर पा रहे तो इसके लिए आर्डिनेंस फैक्ट्री बोर्ड को बिना किसी देरी के जवाबदेह बनाया जाना चाहिए। युद्धक सामग्री की गुणवत्ता में खामी एक तरह से देश की सुरक्षा से खिलवाड़ है। क्या कोई यह देखने-सुनने वाला नहीं कि आर्डिनेंस फैक्ट्रियों के उत्पाद गुणवत्ता के मानकों पर खरे उतरें?

यदि सेना की शिकायती चिट्ठी सही है तो इसका मतलब है कि ऐसी किसी व्यवस्था का घोर अभाव है जो युद्धक सामग्री की गुणवत्ता में कमी को समय रहते दूर कर सके। यह ठीक नहीं कि घटिया युद्धक सामग्री का केवल निर्माण ही नहीं हो रहा है, बल्कि सेना को उसकी आपूर्ति भी की जा रही है। स्थिति कितनी चिंताजनक है, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि सेना ने बढ़ती दुर्घटनाओं के चलते कुछ हथियारों का इस्तेमाल बंद भी कर दिया है। इससे खराब बात और कोई नहीं हो सकती कि खास तौर पर सेना के लिए गोला-बारूद तैयार करने वाले सरकारी कारखाने गुणवत्ता के मामले में बेहतर प्रदर्शन करने के बजाय चिंता का कारण बन रहे हैैं।

यह मानने के अच्छे-भले कारण हैैं कि सेना को आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराने को लेकर किए जाने वाले दावों की हकीकत कुछ और ही है। अब तो यह भी लगता है कि रक्षा मंत्रालय से संबंधित संसदीय समिति की उस रपट को गंभीरता से नहीं लिया गया जिसमें कहा गया था कि तमाम सैन्य उपकरण इस्तेमाल के काबिल ही नहीं हैैं। सच्चाई जो भी हो, इन तथ्यों को ओझल नहीं किया जा सकता कि पिछले कई वर्ष से रक्षा बजट में मामूली वृद्धि हो रही है और सेना की जरूरतें पूरी करने का काम प्राथमिकता के आधार पर मुश्किल से ही होता है।

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