उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य में बेरोजगारी के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। रोजगार कार्यालय में पंजीकृत बेरोजगारों की तादाद नौ लाख के आसपास है। इनमें पांच लाख से ज्यादा पुरुष और करीब चार लाख महिलाएं शामिल हैं। इसके अलावा हजारों युवा ऐसे भी हैं जिन्होंने रोजगार कार्यालयों में पंजीकरण नहीं कराया है। जाहिर है यह आंकड़ा और भी विशाल है। ऐसे में सरकार ने चाूल वित्त वर्ष 2018-19 को रोजगार वर्ष के तौर पर मनाने का निर्णय लेकर युवाओं में भरोसा जगाने की कोशिश की है कि इस मसले पर वह गंभीर है। जिन क्षेत्रों को सरकार रोजगार सृजन की दृष्टि से महत्वपूर्ण मान रही है, उसमें प्रमुख हैं सहकारिता, उद्यान और स्वयं सहायता समूह। सरकार को भरोसा है कि इन तीन क्षेत्रों में करीब साढ़े लाख युवाओं को काम दिया जा सकता है। इसके अलावा जलागम, डेयरी, गाम्य विकास, कौशल विकास, ग्राम संगठन, कृषि व मत्स्य पालन जैसे क्षेत्रों में भी अपार संभावनाएं हैं। सरकार की योजना है कि इस वर्ष प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर छह लाख युवाओं को रोजगार दिया जाए। इससे युवाओं की उम्मीदों का परवाज भरना लाजिमी है। यदि योजना परवान चढ़ी तो वर्ष 2019 में होने वाले आम चुनाव के मद्देनजर सरकार इस उपलब्धि को भुना सकती है।

दरअसल, पलायन का दंश ङोल रहे इस पहाड़ी राज्य की सबसे बड़ी विडंबना रोजगार ही रहा है। रोजगार की तलाश में युवा घर-गांव छोड़ने को मजबूर है और नतीजा करीब तीन लाख घरों में ताले लटके हुए हैं। करीब नौ सौ गांव भुतहा घोषित किए गए हैं। सवाल सिर्फ नौकरियों का नहीं, बल्कि रोजगार का है। ऐसे में सरकार के सामने एक प्रमुख चुनौती युवाओं को स्वरोजगार के लिए प्रेरित करना भी है। इसके लिए सबसे जरूरी है उचित मार्गदर्शन। कौशल विकास इसके लिए अच्छा जरिया है, लेकिन इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी है कि युवाओं संगठित तरीके से प्रशिक्षण दिया जा सके। इसके लिए उद्योग विभाग पहल कर सकता है। अक्सर देखने में आया है कि युवा वित्तीय संस्थाओं से ऋण लेकर अपना रोजगार तो शुरू कर देते हैं, लेकिन उचित मार्गदर्शन के अभाव में उसे ठीक से संचालित नहीं कर पाते। इसके साथ ही औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों का ढांचा भी दुरुस्त करने की जरूरत है। यहां बदलते दौर के अनुकूल पाठ्यक्रम में बदलाव किए जाने चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए कि रोजगार की दिशा में उठाया गया यह कदम अंजाम तक पहुंचेगा।

[ स्थानीय संपादकीय: उत्तराखंड ]