यह आश्चर्यजनक है कि जब विभिन्न राज्यों के मतांतरण रोधी कानूनों को और प्रभावी बनाने एवं केंद्रीय स्तर पर ऐसा कोई कानून बनाने की आवश्यकता है, तब कुछ ऐसे लोग और संगठन भी हैं, जो ऐसे किसी कानून की कहीं कोई जरूरत नहीं समझ रहे हैं। इतना ही नहीं, वे राज्यों के ऐसे कानूनों को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट भी पहुंच गए हैं। उनकी याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए गत दिवस सुप्रीम कोर्ट ने संबंधित राज्यों से उनके मतांतरण रोधी कानूनों पर तीन सप्ताह के अंदर जवाब मांगा है। यह तो स्वाभाविक है कि राज्य अपने मतांतरण रोधी कानूनों को उचित एवं आवश्यक बताएंगे, लेकिन अभी यह कहना कठिन है कि उनके संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट किस नतीजे पर पहुंचता है?

सुप्रीम कोर्ट को किसी नतीजे पर पहुंचने के पहले इससे अवगत होना आवश्यक है कि छल-छद्म एवं लोभ-लालच से मतांतरण एक यथार्थ है और इसी कारण केंद्रीय स्तर पर मतांतरण रोधी कानून बनाने की मांग हो रही है। सुप्रीम कोर्ट को इससे भी परिचित होना चाहिए कि मत प्रचार की स्वतंत्रता का अनुचित लाभ उठाकर विभिन्न संगठन मतांतरण में जुटे हुए हैं। ऐसे संगठनों ने मतांतरण के जरिये देश के कई हिस्सों में जनसांख्यिकी को बदल दिया है। कहीं-कहीं तो इतना अधिक बदल दिया है कि सामाजिक और राजनीतिक समीकरण ही पूरी तरह बदल गए हैं। पूर्वोत्तर के अधिकांश राज्यों के साथ आदिवासी बहुल प्रांतों में यह काम इतने बड़े पैमाने पर किया गया है कि वहां का सामाजिक ताना-बना ही बदल गया है।

राज्यों के मतातंरण रोधी कानूनों को चुनौती देने वाले चाहे जो तर्क दें, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि छल-कपट और प्रलोभन के माध्यम से कराया जाने वाला मतांतरण देश की संस्कृति और आत्मा को परिवर्तित करने वाला काम है। यह काम स्वतंत्रता के बाद से ही जारी है। अब तो मतांतरण में जुटे संगठन देश के हर हिस्से और यहां तक कि पंजाब जैसे राज्यों में भी सक्रिय हो गए हैं। यह भी किसी से छिपा नहीं कि ऐसे संगठनों को विदेश से पैसा मिलता है और वे मतांतरण रोधी कानूनों में छिद्र तलाशने में भी सफल हैं। इसी कारण कई राज्यों को अपने ऐसे कानूनों में संशोधन करने पड़े हैं।

अभी तक लगभग दस राज्यों ने मतांतरण रोधी कानून बना रखे हैं। यह कहना कठिन है कि इन राज्यों में धोखे और लालच से कराया जाने वाला मतांतरण थम गया है। चूंकि मतांतरण अब भी जारी है, इसलिए आवश्यकता इसकी है कि मत प्रचार की स्वतंत्रता की नए सिरे से व्याख्या की जाए। जब तक मत प्रचार की स्वतंत्रता की मनमानी व्याख्या करके उसकी आड़ ली जाती रहेगी, तब तक छल-कपट से कराए जाने वाले मतांतरण पर रोक लगने वाली नहीं है। अच्छा यह होगा कि सुप्रीम कोर्ट यह समझे कि मतांतरण राष्ट्र के मूल चरित्र को बदलने का काम कर रहा है।