यह अच्छा हुआ कि केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह कहा कि वह छल-कपट और जोर-जबरदस्ती से कराए जाने वाले मतांतरण को रोकने के लिए कानून बनाएगी। और भी अच्छा होता कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप करने के पहले ही केंद्र सरकार इस नतीजे पर पहुंच चुकी होती कि ऐसे किसी कानून की आवश्यकता है। वह इससे अनभिज्ञ नहीं हो सकती कि देश के विभिन्न हिस्सों में छल-बल और लोभ-लालच से मतांतरण कराया जा रहा है। मतांतरण में लिप्त तत्वों का दुस्साहस इतना अधिक बढ़ गया है कि वे यह काम खुलेआम कर रहे हैं। इससे राज्य सरकारें भी अवगत हैं, लेकिन वे कुछ विशेष नहीं कर पा रही हैं। दुर्भाग्य से इनमें वे राज्य सरकारें भी शामिल हैं, जिन्होंने छल-कपट और प्रलोभन से कराए जाने वाले मतांतरण के खिलाफ कानून बना रखे हैं।

यह किसी से छिपा नहीं कि देश के जिन नौ राज्यों में मतांतरण रोधी कानून हैं, वहां भी निर्धन-वंचित वर्ग के लोगों को धोखा या लालच देकर मतांतरित किया जा रहा है। स्थिति यह है कि मतांतरण में लिप्त तत्व दलितों-आदिवासियों को धोखा देने के लिए भगवा वस्त्र धारण कर रहे हैं। मतांतरण में लिप्त कई ऐसे समूह और संगठन हैं, जो विदेश से अवैध तरीके से चंदा प्राप्त करते हैं। यद्यपि अवैध तरीके से चंदा हासिल करने पर रोक लगाई गई है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि उस पर पूरी तरह से लगाम लग सकी है।

अब जब केंद्र सरकार इस नतीजे पर पहुंच गई है कि मत-मजहब प्रचार की स्वतंत्रता का अनुचित लाभ उठाया जा रहा है, तब फिर उसे मतांतरण रोधी कानून बनाते समय यह देखना होगा कि इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग रुके। उसे यह भी देखना होगा कि केवल कानून का निर्माण ही पर्याप्त नहीं। उस पर सही तरह अमल भी होना चाहिए। मतांतरण में लिप्त संगठन हतोत्साहित होने और दिखने चाहिए। अभी तो वे बेलगाम ही अधिक दिख रहे हैं। इसका एक कारण यह है कि उन्हें समय रहते उनके किए की सजा नहीं दी जा पाती।

केंद्र सरकार इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकती कि मतांतरण ने देश के विभिन्न हिस्सों में किस तरह सामाजिक ताने-बाने को बदल दिया है। मतांतरण के माध्यम से न केवल देश के सांस्कृतिक स्वरूप को बदला जा रहा है, बल्कि एक तरह से राष्ट्रांतरण किया जा रहा है। क्या यह किसी से छिपा है कि ईसाई मिशनरियों ने किस तरह पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में जनसंख्या असंतुलन पैदा कर दिया है? पिछले कुछ समय से यही मिशनरियां छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडिशा के आदिवासी बहुल इलाकों में सक्रिय हैं। वे निर्धनों की सेवा का ढोंग ही अधिक करती हैं। उनके जैसी ही हरकतें दीन की दावत देने वाले अनेक दावा संगठन भी कर रहे हैं।