खरीफ फसलों की बुआई शुरू होते ही खाद के दामों में कमी करने का सरकार का फैसला किसानों के लिए एक खुशखबरी है। इसलिए और भी, क्योंकि डीएपी, एनपीके समेत अन्य कई खादों के मूल्य में अच्छी-खासी कमी की गई है। यह भी अच्छा है कि खादों के दाम कम करने का फैसला तत्काल प्रभाव से लागू होने जा रहा है। एक अनुमान के तहत खाद के मूल्यों में कटौती के इस फैसले से किसानों को करीब 4500 करोड़ रुपये का लाभ मिलेगा। 'जमीन बचाओ-किसान बचाओ' अभियान के तहत किए गए इस फैसले के तात्कालिक लाभ देखने को मिल सकते हैं, लेकिन यह कहना कठिन है कि इससे खेती लाभ का सौदा बन सकेगी। यह ठीक है कि पिछले दो वर्षों में केंद्र सरकार ने किसानों को राहत देने वाले अनेक फैसले लिए हैं। खादों के दाम कम करने के फैसले के पहले प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को नए रूप में लागू करने को किसानों के कल्याण के लिए एक बड़े कदम के रूप में प्रचारित किया गया था। इसके अलावा गन्ना किसानों के बकाया भुगतान को निस्तारित करने की भी पहल की जा चुकी है। इन सभी फैसलों का कुछ न कुछ लाभ किसानों को मिलेगा ही, लेकिन केंद्र सरकार को इस पर विचार करना चाहिए कि क्या उसकी ओर से ऐसे कोई कदम उठाए गए हैं जिनसे औसत किसान खेती के जरिये आत्मनिर्भर बन सकें? आज भारतीय कृषि के समक्ष सबसे बड़ा संकट यही है कि किसान खेती के जरिये इतना पैसा नहीं हासिल कर पा रहे जिससे वे अपना जीवनयापन बेहतर ढंग से कर सकें।

किसानों की दशा सुधारने के तहत उन्हें आसान किश्तों में कर्ज उपलब्ध कराने की पहल का अपना महत्व है, लेकिन इस पर विचार किया ही जाना चाहिए कि जब तक किसान कर्ज लेने के लिए विवश हैं तब तक यह नहीं कहा जा सकता कि खेती-किसानी लाभ का सौदा बन गई है। अच्छा यह होगा कि सरकार के नीति-नियंता उन कारणों की पहचान और निदान करने में समर्थ हों जिनके चलते कृषि घाटे का सौदा बनी हुई है। एक बड़ी संख्या में किसान मजबूरी में खेती करने को विवश हैं। यदि उनके सामने कोई विकल्प हो तो वे खेती छोडऩा पसंद करेंगे। स्पष्ट है कि सरकार को ऐसे कोई ठोस कदम उठाने की जरूरत है जिससे खेती हमारे किसानों को आत्मनिर्भर बना सके। सरकार यह भी देखने से इन्कार कर रही है कि किसान उन तौर-तरीकों का परित्याग कैसे करें जिनके कारण वे घाटे के दुष्चक्र में फंसे हुए हैं। अन्न की उपज के मामले में अग्रणी कुछ राज्यों में भी किसान मुफ्त अथवा रियायती बिजली-पानी पर निर्भर बने हुए हैं। उनकी इस निर्भरता को खत्म करने की कहीं कोई ठोस पहल इसलिए नहीं हो पा रही है, क्योंकि नेताओं की कथित किसान लॉबी अपने संकीर्ण राजनीतिक कारणों से इस व्यवस्था में बदलाव नहीं चाहती। बेहतर होगा कि किसानों को राहत देने के साथ ही सरकार यह भी सुनिश्चित करे कि औसत किसान सरकार की कृपा पर निर्भर रहने के बजाय आत्मनिर्भर बनें। यह तभी संभव है जब कृषि का आधुनिकीकरण होगा और किसान परंपरागत तौर-तरीकों का परित्याग करेंगे। कृषि और किसानों का हित इसी में है कि ऐसे तौर-तरीके अपनाए जाएं जो उपज बढ़ाने के साथ ही किसानों के लिए आत्मनिर्भरता की राह खोलने वाले हों।

[ मुख्य संपादकीय ]