आखिरकार फ्रांस से राफेल लड़ाकू विमान हासिल होने का रास्ता साफ हो गया। अति आधुनिक तकनीक और बेजोड़ मारक क्षमता से लैस राफेल विमानों के आने से भारतीय वायुसेना को ऐसी ताकत मिलेगी जो देश के समस्त प्रतिरक्षा तंत्र को मजबूत करने में सहायक बनेगी। भारतीय वायुसेना उन्नत किस्म के लड़ाकू विमानों की कमी का सामना अर्से से कर रही थी, लेकिन किन्हीं कारणों उनकी खरीद में जरूरत से ज्यादा देरी हुई। मोदी सरकार को न केवल इसका श्रेय जाएगा कि उसने करीब 59 हजार करोड़ रुपये में फ्रांस से 36 राफेल विमान खरीदने का सौदा एक तरह से आनन-फानन किया, बल्कि इस क्रम में अच्छे-खासे पैसे भी बचाए। यह उल्लेखनीय है कि जो राफेल विमान ज्यादा कीमत पर मिल रहे थे उनकी कीमत कम कराई गई। इसके अलावा सौदे के बदले देश में निवेश की सीमा भी बढ़ाई गई। इसका मतलब है कि फ्रांस में निर्मित होने वाले विमानों का यह सौदा मेक इन इंडिया अभियान को भी गति देगा। जमीन और हवा में मार करने वाले बहुद्देशीय राफेल विमानों की आपूर्ति अगले तीन साल में शुरू हो जाएगी, लेकिन यह स्पष्ट ही है कि भारतीय वायुसेना को अभी कम से कम सौ और लड़ाकू विमान चाहिए। अच्छा होगा कि अन्य देशों से लड़ाकू विमान खरीदने की प्रक्रिया को तेजी से आगे बढ़ाया जाए। यह ठीक नहीं कि हम जरूरी रक्षा सौदे करने में भी अनावश्यक देरी करते हैं। राफेल विमान खरीद संप्रग शासनकाल से ही अटकी हुई थी। यदि मोदी सरकार पुराने सौदे को रद कर नया सौदा नहीं करती तो शायद अभी और देर होती। इसके पहले 1966 में रूस से सुखोई लड़ाकू विमानों का सौदा किया गया था। कायदे से नए लड़ाकू विमान खरीदने का सौदा काफी पहले ही हो जाना चाहिए था। कई बार देरी के दुष्परिणाम बहुत घातक होते हैं, रक्षा मामले में तो और भी। पिछली सरकार कई आवश्यक रक्षा सौदे इसलिए करने से बचती दिखी ताकि दलाली के लेन-देन के आरोपों से बचा जा सके। उम्मीद है कि अब हमारे नीति-नियंता उन कारणों का निदान करने में समर्थ रहे होंगे जिनके चलते अभी तक रक्षा सौदों में बेवजह की देरी होती रही।

राफेल विमान सौदा एक उपलब्धि है, लेकिन अभी रक्षा क्षेत्र की तमाम जरूरतें पूरी करना शेष है। इन जरूरतों को प्राथमिकता के आधार पर पूरा किया जाना चाहिए। इसके साथ ही सीमाओं की सुरक्षा संबंधी तंत्र को भी ठीक करने पर जोर दिया जाना चाहिए। सीमापार से आतंकियों की घुसपैठ का जैसा सिलसिला कायम है और सीमावर्ती क्षेत्रों में सैन्य एवं सुरक्षा बलों के ठिकानों जिस प्रकार रह-रहकर हमले हो रहे हैं वे यही बता रहे हैं कि सीमाओं को अभेद्य बनाने का दावा कसौटी पर खरा नहीं उतर रहा है। उड़ी में आतंकियों का हमला यही बताता है कि सीमाओं की सुरक्षा का हमारा तंत्र अभी भी तमाम कमजोरियों से ग्रस्त है। किसी को बताना चाहिए कि सीमाओं पर सुरक्षा घेरे की मजबूती के लिए जिम्मेदार लोग सांबा, कठुआ, ऊधमपुर, गुरदासपुर और पठानकोट हमले से कोई सबक क्यों नहीं सीख सके? यह वह सवाल है जो पूछा ही जाएगा, क्योंकि सीमाओं की चौकसी की मौजूदा व्यवस्था भरोसेमंद नहीं दिखती। अच्छा हो कि सरकार सेना की जरूरतें पूरी करने के साथ ही इस पर ध्यान दे कि वायु सीमा क्षेत्र के अतिरिक्त जल-थल सीमा क्षेत्र की चौकसी में कहीं कोई कमी न रहे।

[मुख्य संपादकीय]