यह जो कहा जा रहा है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपनी भारत यात्रा के दौरान लोकतंत्र और धार्मिकं स्वतंत्रता की साझी परंपरा पर बातचीत करेंगे उसमें हर्ज नहीं, लेकिन यह भी समझने की जरूरत है कि अमेरिका अथवा अन्य कोई देश कम से कम धार्मिक स्वतंत्रता के मामले में भारत को उपदेश नहीं दे सकता है और न ही उसे देना चाहिए। फिलहाल यह कहना कठिन है कि अमेरिकी राष्ट्रपति लोकतंत्र और धार्मिक स्वतंत्रता की साझी परंपरा पर चर्चा करते हुए किन मुद्दों को उठाएंगे, लेकिन माना जा रहा है कि वे नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए का जिक्र कर सकते हैं। जो भी हो, इस कानून में ऐसा कुछ भी नहीं जो भेदभावपूर्ण हो। इतना अवश्य है कि भारतीय मीडिया के एक हिस्से ने एक ऐसा माहौल बना दिया है जैसे यह कानून भारतीयों के बीच किसी तरह का भेदभाव करने वाला है।

चूंकि भारतीय मीडिया ने इस तरह का माहौल बनाया इसलिए पश्चिमी मीडिया का वह हिस्सा भी ऐसा ही माहौल बनाने में जुट गया जो भारत के प्रति दुराग्रह से ग्रस्त है। धार्मिक स्वतंत्रता के मामले में भारत के समृद्ध अतीत की कोई भी अनदेखी नहीं कर सकता। भारत वह देश है जहां दुनिया के हर हिस्से में प्रताड़ित लोगों को न केवल शरण मिली, बल्कि स्वतंत्रता और सम्मान के साथ जीवनयापन की सुविधा भी मिली। यह सुविधा आज भी उपलब्ध है, लेकिन हर देश को अपने हितों की र्भी ंचता करनी होती है। यर्ह ंचता खुद अमेरिका कर रहा है। क्या यह सच नहीं कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने कुछ देशों के नागरिकों के अपने देश में प्रवेश पर रोक लगाने की पहल की थी?

भारत को इससे चिंतित होने की जरूरत नहीं कि ट्रंप नई दिल्ली में धार्मिक स्वतंत्रता का मसला उठा सकते हैं। पहले के अमेरिकी राष्ट्रपति भी ऐसी कूटनीतिक भूल करते रहे हैं। उनकी यह मानसिकता रही है कि इस मामले में भारत को कुछ सीखने-समझने की आवश्यकता है। नि:संदेह ऐसा कुछ भी नहीं है।

भारत आज भी अपनी उन्हीं परंपराओं-मूल्यों से संचालित है जो सदियों से चले आ रहे हैं। भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी इन्हीं मूल्यों की ही बात करते हैं, लेकिन देश में एक वर्ग है जो नरेंद्र मोदी को नापसंद करता है और यही कारण है कि उनके सत्ता में आते ही असहिष्णुता का मसला उठाकर अवार्ड वापसी का अभियान चलाया गया। यह आवश्यक है कि यह जो माहौल बनाया जा रहा कि भारत में धार्मिक स्वतंत्रता के लिए स्थान कम हो गया है उससे लड़ा जाए, क्योंकि इस माहौल को बनाने का काम कुछ दल और वामपंथी रुझान वाले संगठन अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए कर रहे हैं।