इराक में तैनात अमेरिकी सैनिकों से अचानक मिलने गए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के इस बयान पर दुनिया भर में बहस छिड़ना स्वाभाविक है कि अमेरिका दुनिया का रखवाला नहीं बनना चाहता। इस बयान को उनके उस फैसले से जोड़ा जा रहा है जिसके तहत वह सीरिया और अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुला रहे हैं। सीरिया से सारे अमेरिकी सैनिक वापस बुलाए जाने हैं और अफगानिस्तान से आधे। इसमें दोराय नहीं कि जहां सीरिया से अमेरिकी सैनिकों की वापसी से पश्चिम एशिया प्रभावित होगा, वहीं काबुल एवं कंधार से अमेरिकी सैनिकों में कटौती से दक्षिण एशिया। चूंकि अफगानिस्तान में भारत के हित निहित हैं इसलिए अमेरिकी राष्ट्रपति के फैसले से भारत सरकार का चिंतित होना स्वाभाविक है।

हालांकि अमेरिकी राष्ट्रपति के इस औचक फैसले से उनके अपने सैन्य अधिकारी और यहां तक कि अमेरिकी रक्षा मंत्रालय भी सहमत नहीं, लेकिन ऐसा लगता नहीं कि वह अपने फैसले पर फिर से विचार करने वाले हैं। शायद इसी कारण अमेरिकी रक्षा मंत्री इस्तीफा देकर चलते बने। अपेक्षा से उलट और कई बार तो अजीबोगरीब फैसले लेने के आदी अमेरिकी राष्ट्रपति ऐसे सवालों से घिरने के लिए खुद ही जिम्मेदार हैं कि आखिर अमेरिका से यह कहा ही कब गया था कि वह दुनिया का रखवाला बने? तथ्य यही है कि वह खुद ही दुनिया का थानेदार बन बैठा था।

कभी लोकतंत्र की स्थापना, कभी विश्व शांति की रक्षा और कभी आतंकवाद से लड़ने के नाम पर अमेरिका ने दुनिया के तमाम देशों में जैसी मनमानी की वह किसी से छिपी नहीं। इस मनमानी के चलते इराक, लीबिया जैसे न जाने कितने देश बुरी तरह तबाह हुए, लेकिन अमेरिका विश्व जनमत और यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र की अनदेखी कर अपने संकीर्ण हितों को पूरा करने के लिए मनमानी करता रहा। अगर डोनाल्ड ट्रंप का सामना इस सच से हो गया है कि अमेरिका दुनिया का रखवाला नहीं तो इसका यह मतलब नहीं कि वह गैर जिम्मेदाराना रवैये का परिचय देते हुए दुनिया के उन हिस्सों को खतरे में डालें जो अमेरिकी दखलंदाजी के कारण ही अशांत और अस्थिर हैं। यह समझना कठिन है कि अमेरिकी राष्ट्रपति इस नतीजे पर कैसे पहुंच गए कि सीरिया से आइएस का पूरी तौर पर सफाया हो गया है? क्या यह बात खुद अमेरिकी रक्षा विशेषज्ञ नहीं कह रहे हैं कि सीरिया से अमेरिकी सैनिकों को बुलाना आइएस को अपने पैर फिर से जमाने का अवसर देना और साथ ही उनसे लोहा लेने वाले कुर्दों को संकट में ठेलना है?

यह समझ आता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावी वादों को पूरा करने और अपने वोट बैंक को मजबूत बनाने के लिए बेचैन हैं, लेकिन आखिर इसके लिए वह पश्चिम एशिया और दक्षिण एशिया के भविष्य से कैसे खेल सकते हैं? वह इस तथ्य से अनजान क्यों बन रहे कि पाकिस्तान के समर्थन वाला अफगान तालिबान अफगानिस्तान के नए-नए इलाकों में कब्जा करता जा रहा है? डोनाल्ड ट्रंप का रवैया न केवल तालिबान के दुस्साहस को बढ़ाने वाला, बल्कि पाकिस्तान को आतंकवाद को समर्थन देते रहने के लिए उकसाने वाला भी है। ऐसे रवैये से तो अमेरिका भरोसे के काबिल ही नहीं रह जाएगा।