काबुल एयरपोर्ट के बाहर भीषण आतंकी हमले के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने यह जो कहा कि वह इस हमले के दोषियों को बख्शेंगे नहीं और उन्हें ढूंढकर मारेंगे, उस पर हैरानी नहीं। उनकी तरह उनके पूर्ववर्ती भी अमेरिकी हितों को क्षति पहुंचाने वाले आतंकी संगठनों के बारे में इस तरह की घोषणाएं करते रहे हैं, लेकिन सब जानते हैं कि ऐसी घोषणाओं के तहत उठाए जाने वाले कदमों से कोई बेहतर नतीजे नहीं निकले। सच तो यह है कि जब से अमेरिका के नेतृत्व में आतंकवाद के खिलाफ युद्ध छिड़ा तब से वह बेलगाम ही हुआ है। पहले यह आतंकवाद अफगानिस्तान तक केंद्रित था, फिर उसने इराक, सीरिया, लीबिया आदि देशों में अपने पैर पसार लिए। यह एक तथ्य है कि इराक और सीरिया में सबसे खूंखार आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट ने आतंकवाद के खिलाफ गलत अमेरिकी नीतियों के कारण ही सिर उठाया। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अफगानिस्तान पर हमला कर तालिबान को सबक सिखाने के इरादे प्रकट करने वाला अमेरिका इस संगठन को परास्त नहीं कर सका। स्थिति यह बनी कि उसे उसी तालिबान से वार्ता करनी पड़ी जिसे उसने काबुल की सत्ता से बेदखल किया था।

क्या यह हैरानी की बात नहीं कि 20 साल तक सक्रिय रहने के बाद भी अमेरिका और उसके सहयोगी देश तालिबान को पस्त नहीं कर सके? ऐसा एक तो इस कारण हुआ कि अमेरिका ने तालिबान को पालने-पोसने वाले पाकिस्तान को दंडित नहीं किया और दूसरे, आतंकवाद के खिलाफ अपनी लड़ाई को अपने हिसाब से लड़ा। यह समूचे विश्व की लड़ाई बननी चाहिए थी और इसे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के नेतृत्व-निर्देशन में लड़ा जाना चाहिए था। यदि ऐसा नहीं हो सका तो अमेरिका के अहंकारी रवैये के कारण। अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ युद्ध भी छेड़े रहा और इसकी तह तक जाने की जरूरत भी नहीं समझता रहा कि आखिर आतंकियों को आधुनिक हथियार और गोला-बारूद कहां से मिल रहे हैं और उन्हें सहयोग, समर्थन और संरक्षण देने वाले देश कौन हैं? काबुल एयरपोर्ट के बाहर आतंकी हमला करने वाला इस्लामिक स्टेट भले ही इराक और सीरिया में पस्त हो गया हो, लेकिन उसने अफगानिस्तान के साथ-साथ दुनिया के कुछ और हिस्सों में सिर उठा लिया है। इसमें संदेह है कि अमेरिका अफगानिस्तान में सक्रिय इस्लामिक स्टेट को खत्म कर सकेगा। यदि अमेरिका इस आतंकी संगठन को खत्म करने को लेकर प्रतिबद्ध है तो उसे कोशिश करनी चाहिए कि इस प्रतिबद्धता में विश्व समुदाय भी भागीदार बने। इसके लिए न केवल सुरक्षा परिषद का सहयोग लिया जाना चाहिए, बल्कि भारत को इस संस्था का स्थायी सदस्य भी बनाया जाना चाहिए, क्योंकि यह वह देश है जिसने आतंकवाद का सबसे अधिक सामना किया है।