सुप्रीम कोर्ट ने 1984 के सिख विरोधी दंगों से संबंधित 186 मामलों की नए सिरे से जांच के लिए विशेष जांच दल गठित करने का जो फैसला दिया उसकी आधारशिला उसी समय तैयार हो गई थी जब उसके द्वारा नियुक्त एक समिति ने यह पाया था कि इतने मामलों को जांच के बगैर ही बंद कर दिया गया था। अच्छा होगा कि किसी को इसके लिए भी जवाबदेह बनाया जाए कि आखिर जांच के नाम पर खानापूरी क्यों की गई? क्या यह विचित्र नहीं कि बिना जांच के मामलों को बंद करने का काम भी एक विशेष जांच दल ने किया था, जिसका गठन 2015 में केंद्र सरकार ने किया था। सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक तरह से केंद्र सरकार के विशेष जांच दल की नाकामी को ही बयान कर रहा है। देखना है कि जो काम केंद्र सरकार की ओर से गठित विशेष जांच दल नहीं कर पाया उसे सुप्रीम कोर्ट की ओर से गठित विशेष जांच दल कर पाएगा नहीं? यह सही है कि जिन मामलों की जांच होनी है वे 34 साल पुराने हैैं और अब विशेष जांच दल के लिए सुबूत जुटाना एवं अपराधियों की पहचान करना कहीं कठिन काम होगा, लेकिन इसके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि इन मामलों की जांच की जरूरत नहीं। दुनिया के कई देशों ने यह दिखाया है कि किस तरह दशकों पुराने मामलों की भी सही तरह से जांच और दोषियों को दंडित करना संभव है। बेहतर हो कि 186 मामलों की जांच करने वाला विशेष जांच दल इन देशों के उदाहरण से प्रेरणा ले और सिख विरोधी हिंसा के जिन भी मामलों में संभव हो, दोषियों की पहचान करने और उनके खिलाफ सुबूत जुटाने का काम करे। चूंकि इस तरह का काम गुजरात दंगों की जांच करने वाला विशेष जांच दल कर चुका है इसलिए यह उम्मीद की जाती है कि वह भी इस नए विशेष जांच दल के सदस्यों को कुछ ठोस नतीजे देने के लिए बल प्रदान करेगा।
1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली और कुछ अन्य शहरों में सिखों के खिलाफ भड़के दंगे एक दाग हैैं और उन्हें धोने के लिए जितना कुछ किया जाए, वह कम है। यह अच्छा नहीं हुआ कि इन दंगों के दौरान हत्या और लूटपाट के लिए जिम्मेदार सभी लोग दंडित नहीं हो सके। इसके लिए एक बड़ी हद तक नहीं, बल्कि पूरी तौर पर तत्कालीन केंद्र सरकार जिम्मेदार रही। उसने पहले तो सिखों के खिलाफ भड़की हिंसा को रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाए और इसी कारण दिल्ली में इन दंगों ने एक तरह के नरसंहार का रूप ले लिया और बाद में हत्या एवं लूटपाट में शामिल लोगों को दंडित करने के मामले में भी गंभीरता का परिचय नहीं दिया। दुर्भाग्य से दिल्ली जैसी स्थिति उन शहरों की भी रही जहां सिखों के खिलाफ हिंसा भड़की थी। क्या यह शर्मनाक नहीं कि कानपुर में सिख दंगों के दौरान 127 लोगों की मौत के मामलों की जांच विशेष जांच दल से कराने का मामला लंबित है? बेहतर होगा कि सिख विरोधी दंगों से संबंधित सारे लंबित मामले विशेष जांच दल को सौंप दिए जाएं।

[ मुख्य संपादकीय ]