मौका तलाशता विपक्ष चुनाव के पहले विपक्षी दल एकजुट नहीं हो सके

यदि एक्जिट पोल के आंकड़े सामने आने के साथ ही विपक्षी दलों के विभिन्न नेताओं की गतिविधियां तेजी पकड़ रही हैैं तो यह सहज ही समझा जा सकता है कि उनका एकमात्र उद्देश्य येन-केन-प्रकारेण सरकार बनाने की संभावनाएं टटोलना हैं। वे इन संभावनाओं की तलाश करने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन क्या यह बेहतर नहीं होता कि चुनाव नतीजों की प्रतीक्षा की जाती और फिर परिस्थितियों के हिसाब से कदम बढ़ाए जाते? सवाल यह भी है कि यदि विपक्षी नेता मोदी सरकार की वापसी रोकने को लेकर इतने ही प्रतिबद्ध थे तो फिर उन्होंंने चुनाव पूर्व कोई गठबंधन क्यों नहीं तैयार किया? बिहार की तर्ज पर राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन बनाने की बातें तो खूब की गईं, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही रहा। अच्छा होता कि अंतिम चरण का मतदान संपन्न होते ही इधर-उधर दौड़ लगाने के बजाय विपक्षी नेता इस पर आत्ममंथन करते कि आखिर बेंगलूर, दिल्ली और कोलकाता में अपनी एकजुटता का तमाम प्रदर्शन करने के बाद भी वे चुनाव पूर्व गठबंधन बनाने में सक्षम क्यों नहीं हुए?

ध्यान रहे कि केवल महागठबंधन बनाने के दावे ही नहीं किए गए थे, बल्कि न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय करने का भी वादा किया गया था। इस वादे से किनारा किए जाने से आम जनता को यही संदेश गया कि विपक्षी दल कोई ठोस विकल्प पेश करने को लेकर गंभीर नहीं और उनकी एकजुटता में उनके संकीर्ण स्वार्थ बाधक बन रहे हैैं। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि महागठबंधन की चर्चा के बीच ऐसे बयान भी सामने आने लगे कि गठबंधन तो चुनाव नतीजों के बाद ही बनता है। ऐसे बयान एक तरह से यही बता रहे थे कि अवसरवादी राजनीति की आधारशिला रखने के साथ ही जनादेश की मनमानी व्याख्या करने की तैयारी की जा रही है।

विपक्षी दल एक्जिट पोल के आंकड़ों की चाहे जैसी व्याख्या करें, सच्चाई यह है कि उन्होंने जनता का भरोसा हासिल करने के लिए आवश्यक कदम उठाने से इन्कार किया। समस्या केवल यही नहीं रही कि चुनाव के पहले विपक्षी दल एकजुट नहीं हो सके। समस्या यह भी रही कि वे चुनाव के दौरान एक-दूसरे को मात देकर आगे निकलने की होड़ में भी जुटे। इसी के चलते वे एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ते हुए दिखे। कांग्रेस जिस सपा-बसपा को अपने भावी सहयोगी के तौर पर देख रही थी उसके खिलाफ चुनाव लड़ी।

सपा-बसपा ने भी चुनाव बाद कांग्रेस से सहयोग लेने-देने की संभावनाएं तो जगाए रखीं, लेकिन उसे अपने गठबंधन का हिस्सा बनाने से इन्कार कर दिया। कुछ ऐसी ही स्थिति अन्य राज्यों में भी दिखी। इससे यही स्पष्ट हुआ कि विपक्षी दल स्वयं के बलबूते ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करना चाह रहे थे ताकि यदि नतीजों के बाद मिलीजुली सरकार बनाने की नौबत आए तो उसमें उनका दावा औरों से कहीं अधिक मजबूत हो सके। पता नहीं चुनाव नतीजे क्या तस्वीर पेश करेंगे, लेकिन इसमें दोराय नहीं कि विपक्षी दल भाजपा अथवा उसके नेतृत्व वाले राजग से एकजुट होकर मुकाबला करने को लेकर गंभीर नहीं दिखे। कम से कम अब तो उन्हें यह समझना ही चाहिए कि गठबंधन राजनीति मौकापरस्ती का पर्याय नहीं बन सकती।

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