विषम भूगोल और 71.05 प्रतिशत वन भूभाग वाले उत्तराखंड में इन दिनों गुलदारों का खौफ तारी है। सप्ताहभर के भीतर ही अल्मोड़ा और पौड़ी जिलों में गुलदार के हमलों में दो व्यक्तियों को जान गंवानी पड़ी है, जबकि अन्य क्षेत्रों में भी गुलदारों की लगातार धमक ने नींद उड़ाई हुई है। इन क्षेत्रों के लोग डर के साए में जीवन गुजार रहे हैं। अब तो पानी सिर से ऊपर बहने लगा है। वन्यजीवों के हमलों की घटनाओं पर नजर दौड़ाएं तो इनमें 80 प्रतिशत से ज्यादा हमले गुलदारों के हैं। वन सीमा से सटे आबादी वाले क्षेत्रों में गुलदार ऐसे धमक रहे, मानो पालतू जानवर हों। वहां न खेत खलिहान सुरक्षित हैं और न घर-आंगन। कब कहां, गुलदार काल बनकर टूट पड़े, कहा नहीं जा सकता।

ऐसे में सवाल उठने लगा है कि आखिर गुलदारों के आतंक से राज्यवासियों को कब निजात मिलेगी। हालांकि गुलदारों के आतंक को देखते हुए पूर्व में महाराष्ट्र मॉडल को यहां अपनाने की बात हुई, मगर ये कवायद भी रंग नहीं जमा पाई। बाद में वन क्षेत्रों से सटे गांवों में विलेज वॉलंटियर फोर्स का गठन, त्वरित कार्रवाई दल (क्यूआरटी) की तैनाती, वन सीमा पर सोलर पावर फेंसिंग जैसे कदम उठाने की बात हुई, मगर इन पहलों के आकार लेने का अभी इंतजार है। असल में गुलदार क्यों आक्रामक हो रहे हैं, इसके कारणों का कोई ठोस डाटाबेस महकमे के पास नहीं है। यह तभी संभव होगा, जब इसके लिए गहनता से वैज्ञानिक अध्ययन कराया जाए। फिर इसके आधार पर समस्या के निराकरण के लिए ऐसे कदम उठाए जाएं, जिससे गुलदार भी सुरक्षित रहें और जनमानस भी।

लंबे इंतजार के बाद वन महकमे ने भारतीय वन्यजीव संस्थान के माध्यम से देहरादून एवं हरिद्वार के बीच 15 गुलदारों पर रेडियो कॉलर लगाकर अध्ययन कराने का निर्णय लिया है। इसके लिए केंद्र सरकार से हरी झंडी मिलने का इंतजार किया जा रहा है। इस पहल के परवान चढ़ने पर गुलदारों के आक्रामक व्यवहार, उनके मूवमेंट समेत अन्य कारणों की न सिर्फ गहनता से पड़ताल होगी, बल्कि आने वाले दिनों में गुलदार-मानव संघर्ष को थामने की दिशा में ठोस कार्ययोजना तैयार की जा सकेगी। इस पहल के लिए केंद्र से देर-सबेर अनुमति तो मिल ही जाएगी, लेकिन अध्ययन में वक्त लगना तय है। ऐसे में आवश्यक है कि वन महकमा फौरी तौर पर भी कदम उठाना सुनिश्चित करे। आखिर सवाल आमजन की सुरक्षा का भी है।